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पैंतालीसं मागम
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मोहमिज्जुत्ति (मोघ-नियुक्ति) नाम : व्याख्या
ओघ का अर्थ प्रवाह, सातत्य, परम्परा या परम्परा-प्राप्त उपदेश है। इस ग्रन्थ में साधु-जीवन से सम्बद्ध सामान्य समाचारी का विश्लेषण है । सम्भवतः इसीलिए इसका यह नामकरण हुअा। जिस प्रकार पिण्ड-नियुक्ति में साधुओं के आहार-विषयक पहलुओं का विवेचन है, उसी प्रकार इसमें साधु-जीवन से सम्बद्ध सभी माचार-व्यवहार के विषयों का संक्षेप में संस्पर्श किया गया है।
पिण्ड-नियुक्ति दशवकालिक नियुक्ति का जिस प्रकार अंश माना जाता है, उसी प्रकार इसे आवश्यक नियुक्ति का एक अंश स्वीकार किया जाता है, जिसके रचयिता प्राचार्य भद्रबाहु हैं । इसमें कुल ८११ गाथाएँ हैं । नियुक्ति तथा भाष्य की गाथाएँ विमिश्रित हैं, उन्हें पृथक्-पृथक् कर पाना सहज नहीं है।
अोघ-नियुक्ति प्रतिलेखन-द्वार, आलोचना-द्वार तथा विशुद्धिद्वार में विभक्त है। प्रकरणों के नामों से स्पष्ट है कि साधु-जीवन के प्रायः सभी चर्या--अगों के विश्लेषण का इसमें समावेश है। एक महत्वपूर्ण प्रसंग
_एक चिर चचित प्रसंग है, जिस पर इसमें भी विचार किया गया है । वह प्रसंग है : प्रात्म-रक्षा--जीवन-रक्षा का अधिक महत्व है या संयम-रक्षा का? दोनों में से किसी एक के नाश का प्रश्न उपस्थित हो जाए, तो प्राथमिकता किसे देनी चाहिए ? इस विषय में प्राचार्यों में मतभेद रहा है। कुछ ने संयम-रक्षा हेतु मर मिटने को आवश्यक बतलाया है और कुछ ने जीवन-रक्षा कर फिर प्रायश्चित्त लेने का सुझाव दिया है।
अोघ-नियुक्ति में बतलाया गया है कि श्रमण को संयम का प्रतिपालन सदा पवित्र भाव से करना ही चाहिए, पर यदि जीवन मिटने का प्रसंग बन जाए, तो वहां प्राथमिकता जीवन-रक्षा को देनी होगी। यदि जीवन बच गया, तो साधक एक बार संयम-च्युत होने
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