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जैनागम दिग्दर्शन हैं। भिक्षा से सम्बद्ध अनेक पहलुओं का विस्तृत तथा साथ-ही-साथ रोचक वर्णन है। वहां उद्गम और उत्पादन-दोष के सोलह-सोलह तथा एषणा-दोष के दश भेदों का वर्णन है । भिक्षागत दोषों के सन्दर्भ में स्थान-स्थान पर उदाहरण देकर स्पष्ट किया गया है कि अमुक मुनि उस प्रकार के दोष का सेवन करने के कारण प्रायश्चित्त के भागी हुए।
गृहस्थ के यहां से भिक्षा किस-किस स्थिति में ली जाए, इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण चर्चाएं हैं। बताया गया है कि यदि गह-स्वामिनी भोजन कर रही हो, दहो बिलो रही हो, आटा पीस रही हो, चावल कूट रही हो, रुई धुन रही हो, तो साधु को उससे भिक्षा नहीं लेनी चाहिए। इसी प्रकार अत्यन्त नासमझ बालक से, अशक्त वृद्ध से, उन्मत्त से, जिसका शरीर कांप रहा हो, जो ज्वराक्रान्त हो, नेत्रहीन हो, कष्ट-पीड़ित हो, ऐसे व्यक्तियों से भी भिक्षा लेना अविहित है। भविष्य-कथन, चिकित्सा-कौशल, मन्त्र, तन्त्र, वशीकरण आदि से प्रभावित कर भिक्षा लेना भी वर्जित कहा गया है । कुछ महत्वपूर्ण उल्लेख
प्रसंगोपात्त सर्प-दंश आदि को उपशान्त करने के लिए दीमक के घर की मिट्टी, वमन शान्त करने के लिए मक्खी की बीठ, टूटी हुई हड्डी जोड़ने के लिए किसी की हड्डी, कुष्ट रोग को मिटाने के लिए गोमूत्र का प्रयोग आदि साधुओं के लिए निर्दिष्ट किये गये हैं।
__ साधु जिह्वा-स्वाद से अस्पृष्ट रहता हुआ किस प्रकार अनासक्त तथा प्रमूछित भाव से भिक्षा ग्रहण करे, गृहस्य पर किसी भी प्रकार का भार उत्पन्न न हो, वह उनके लिए असुविधा, कष्ट या प्रतिकूलता का निमित्त न बने, उसके कारण गृहस्थ के घर में किसी प्रकार की अव्यवस्था न हो जाए; इत्यादि का जैसा मनोवैज्ञानिक एवं व्यावहारिक विवेचन इस ग्रन्थ में हुअा है, वह जैन श्रमण-चर्या के अनुशीलन एवं अनुसंधान के सन्दर्भ में विशेषतः पठनीय है।
पिण्ड-नियुक्ति पर प्राचार्य मलयगिरि ने वृहद्-वृत्ति की रचना की। श्री वीराचार्य ने इस पर लघु-वृत्ति लिखी है।
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