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पैंतालीस ग्रागम
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अध्यवसाय भी किया है, जो इस एक उदाहरण से स्पष्ट है कि जर्मन विद्वान् डा० अर्नेस्ट ल्यूमेन ( Dr. Ernest Leumann) ने सन् १८६२ में जर्मन प्रॉरियन्टल सोसायटी के जर्नल ( Journal of the German Oriental Society) में सबसे पहले दशवैकालिक का प्रकाशन किया । उससे पहले यह ग्रन्थ केवल हस्तलिखित प्रतियों के रूप में था, मुद्रित नहीं हो पाया था । उसके पश्चात् भारत में इसका प्रकाशन हुआ । उत्तरोत्तर अनेक संस्करण निकलते गये । सन् १६३२ में सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान्, जैन आगम वाङ् मय व प्राकृत के प्रमुख अध्येता डा० शुबिंग के सम्पादकत्व में प्रस्तावना आदि के साथ इसका जर्मनी में प्रकाशन हुआ ।
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४. पिंड निज्जुत्ति ( पिण्ड - नियुक्ति)
नाम : व्याख्या
पिण्ड शब्द जैन पारिभाषिक दृष्टि से भोजनवाची है । प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रहार एषणीयता, अनेषणीयता श्रादि के विश्लेषण के सन्दर्भ में उद्गम-दोष, उत्पादन - दोष, एषणा - दोष और ग्रास- एषणा - दोष आदिश्रमण जीवन के आहार, भिक्षा प्रादि महत्वपूर्ण पहलुओं पर विशद विवेचन किया गया है । मुख्यतः दोषों से सम्बद्ध होने के कारण इस ग्रन्थ की अनेक गाथाएं सुप्रसिद्ध दिगम्बर लेखक वट्टकेर के मूलाचार की गाथाओं से मिलती हैं ।
प्रस्तुत ग्रन्थ में छः सौ इकहत्तर गाथाएँ हैं । यह वास्तव में कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है । दशवैकालिक के पंचम अध्ययन का नाम 'पिण्डेषणा' है । इस अध्ययन पर प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति बहुत विस्तृत हो गयी है । यही कारण है कि इसे 'पिण्ड -निर्युक्ति' के नाम से एक स्वतन्त्र आगम के रूप में स्वीकार कर लिया गया । नियुक्ति और भाष्य की गाथाओं का इस प्रकार विमिश्रण हो गया है कि उन्हें पृथक्-पृथक् छाँट पाना कठिन है ।
पिण्ड - नियुक्ति आठ अधिकारों में विभक्त है, जिनके नाम उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना, प्रमाण, अँगार, धूम तथा कारण
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