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________________ जैनागम दिग्दर्शन विशेषता : महत्त्व . अति संक्षेप में जैन-तत्त्व दर्शन एवं आचार-शास्त्र व्याख्यात करने की अपनी असाधारण विशेषता के साथ-साथ शब्द-रचना, शैली तथा भाषा-शास्त्र की दृष्टि से भी इस सूत्र का कम महत्व नहीं है। इसमें प्रयुक्त भाषा के अनेक प्रयोग अति प्राचीन प्रतीत होते हैं, जो प्राचारांग तथा सूत्रकृताँग जैसे प्राचीनतम आगम-ग्रन्थों में हुए भाषा-प्रयोगों से तुलनीय हैं। उतराध्ययन में हुए भाषा के प्राचीनता-द्योतक प्रयोगों के समकक्ष इसमें भी उसी प्रकार के अनेक प्रयोग प्राप्त होते हैं । यह अर्द्धमागधी भाषा-विज्ञान से सम्बद्ध एक स्वतन्त्र विषय है, जिस पर विशेष चर्चा करना प्रसंगोपात नहीं है । प्राकृत के सुप्रसिद्ध अध्येता एवं वैयाकरणी डा. पिशल ने उतराध्ययन तथा दशवकालिक को प्राकृत के भाषा-शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से महत्वपूर्ण बतलाया है। व्याख्या-साहित्य दशवकालिक सूत्र पर प्राचार्य भद्रबाहु ने नियुक्ति की रचना की। श्री अगस्त्यसिंह तथा श्री जिनदास महत्तर द्वारा चूर्णियां लिखी गयीं। प्राचार्य हरिभद्रसूरि ने टीका की रचना की। श्री समयसुन्दर गणी ने दीपिका लिखी। श्री तिलकाचार्य या श्री तिलकसूरि, श्री सुमतिसूरि तथा श्री विनयहंस प्रभृति विद्वानों द्वारा वृत्तियों की रचना हुई। यापनीय संघ के श्री अपराजित, जो श्री विजयाचार्य के नाम से भी ख्यात हैं; ने भी टीका की रचना की, जिसका उन्होंने 'विजयोदया' नामकरण किया । अपने द्वारा विरचित "भगवती आराधना" टीका में उन्होंने इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है। श्री ज्ञानसम्राट तथा श्रीराजहंस महोपाध्याय ने इस पर गुजराती टीकात्रों की रचना की। श्री ज्ञानसम्राट् द्वारा रचित टीका 'बालावबोध' के नाम से विश्रुत है। प्रथम प्रकाशन पाश्चात्य विद्वानों का प्राच्यविद्याओं के अन्तर्गत जैन वाङमय के परिशीलन की ओर भी झुकाव रहा है। उन्होंने उस ओर विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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