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________________ पंतालीस आगम १५६ है : १. औत्पात्तिकी, २. वैनयिकी, ३. कर्मजा, ४, पारिणामिकी : उप्पत्तिया वेणइया, कम्मया परिणामिया । बुद्धी चउन्विहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई ॥ -सू० २६, गा• ६८ प्रौत्पात्तिकी बुद्धि : पहले बिना देखे, बिना सुने और बिना जाने पदार्थों को तत्काल विशुद्ध रूप से ग्रहण करने वाली अबाधित फलयुक्त बुद्धि को औत्पात्तिकी बुद्धि कहते हैं। यह बुद्धि किसी प्रकार के पूर्व अभ्यास एवं अनुभव के बिना ही उत्पन्न होती है। वैनयिकी बुद्धि : कठिन कार्य-भार के निर्वाह में समर्थ, धर्म और कामरूप त्रिवर्ग का वर्णन करने वाले सूत्र और अर्थ का सार ग्रहण करने वाली तथा इहलोक और परलोक दोनों में फल देने वाली बुद्धि विनयसमुत्थ अर्थात् विनय से उत्पन्न होने वाली वैनयिकी बुद्धि है : भरनित्थरणसमत्था, तिवग्गसुत्तत्थगहियपेयाला । उभयोलोगफलवई, विणयसमुत्था हवइ बुद्धि ।। कर्मजा बुद्धि : एकाग्र चित्त से ( उपयोगपूर्वक ) कार्य के परिणाम को देखने वाली, अनेक कार्यों के अभ्यास एवं चिन्तन से विशाल तथा विद्वज्जनों से प्रशंसित बुद्धि का नाम कर्मजा बुद्धि है : उवयोगदिसारा, कम्मपसंगपरिघोलणविसाला। साहुक्कार फलवई, कम्मसमुत्था हवइ बुद्धि ।। -गा० ७६ पारिणामिकी बुद्धि । __ अनुमान, हेतु और दृष्टान्त से विषय को सिद्ध करने वाली, आयु के परिपाक से पुष्ट तथा ऐहलौकिक उन्नति एवं मोक्षरूप 'निःश्रेयस् प्रदान करने वाली बुद्धि का नाम पारिणामिकी बुद्धि है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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