________________
जैनागम दिग्दर्शन
में विचार किया गया है: १. द्रव्य, २. क्षेत्र, ३. काल और ४. भाव । द्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण द्रव्यों को जानता व देखता है । क्षेत्र की अपेक्षा से केवलज्ञानी लोकालोकरूप समस्त क्षेत्र को जानता व देखता है। काल की अपेक्षा से केवलज्ञानी सम्पूर्ण कालतीनों कालों को जानता व देखता है । भाव की अपेक्षा से केवलज्ञानी द्रव्यों के समस्त पर्यायों को जानता व देखता है । संक्षेप में केवलज्ञान समस्त पदार्थों के परिणामों एवं भावों को जानने वाला है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है, एक ही प्रकार का है :
अह सव्वदव्वपरिणामभावविण्णत्तिकारणमणंतं । सासयमप्पडिवाई, एकविहं केवलं नाणं ॥
-सू० २२, गा०६६ आमिनिबोधिक-ज्ञान :
नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष के अन्तिम प्रकार केवलज्ञान का वर्णन करने के बाद सूत्रकार प्रत्यक्ष ज्ञान की चर्चा समाप्त कर परोक्ष ज्ञान की चर्चा प्रारम्भ कर देते हैं । परोक्ष ज्ञान दो प्रकार का है : आभिनिबोधिक और श्रत । जहां प्राभिनिबोधिक ज्ञान है, वहां श्रुतज्ञान है और जहां श्रुतज्ञान है, वहां आभिबोधिक ज्ञान है । ये दोनों परस्पर अनुगत हैं । इन दोनों में विशेषता यह है कि अभिमुख आये हुए पदार्थों का जो नियत बोध कराता है, वह प्राभिनिबोधिक ज्ञान है । इसी को मतिज्ञान भी कहते हैं। श्रुत का अर्थ है सुनना । श्रुतज्ञान अर्थात् शब्दजन्य ज्ञान मतिपूर्वक होता है, किन्तु मतिज्ञान श्रु तपूर्वक नहीं होता।
___अविशेषित मति मति-ज्ञान और मति-अज्ञान उभय रूप है। विशेषित मति अर्थात् सम्यग्दृष्टि की मति मति-ज्ञान है तथा मिथ्यादृष्टि की मति मति-अज्ञान है। इसी प्रकार अविशेषित श्रु त श्रत-ज्ञान और श्रत-अज्ञान उभयरूप है जब कि विशेषित अर्थात् सम्यग्दृष्टि का श्रुत श्रुत-ज्ञान है एवं मिथ्या-दृष्टि का श्रुत श्रुतअज्ञान है।
आभिनिबोधिक ज्ञान-मतिज्ञान दो प्रकार का है : श्र तनिश्रित और अश्रु तनिश्रित । अश्रु तनिश्रित मति-बुद्धि चार प्रकार की होती
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org