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कतिपय महत्वपूर्ण प्रसंग
प्रायश्चित्तों के विश्लेषण की दृष्टि से दूसरा उद्देशक भी विशेष महत्वपूर्ण है । अनवस्थाप्य, पारांचिक आदि प्रायश्चित्तों के सन्दर्भ में इस में अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन हुआ है । एक स्थान पर वर्णन है- "जो साधु रोगाक्रान्त है, वायु आदि के प्रकोप से जिसका चित्त विक्षिप्त है, कारण विशेष ( कन्दर्पोद्भव आदि) से जिसके चित्त में वैकल्य है, यक्ष आदि के आवेश के कारण जो ग्लान है, शैत्य आदि से प्रत्याक्रान्त है, जो उन्माद प्राप्त है, जो देवकृत उपसर्ग से ग्रस्त होने के कारण अस्त-व्यस्त है, क्रोध आदि कषाय के तीव्र प्रवेश के कारण जिसका चित्त खिन्न है, उसको — उन सबको जब तक वे स्वस्थ न हो जायें, तब तक उन्हें गण से बहिष्कृत करना प्रकल्प्य है ।" इस प्रकार के और भी अनेक प्रसंग हैं । गण - धारकता के लिए अपेक्षित विधि - निषेध, पदासीनता, भिक्षा-चर्या, विधि क्रम, स्वाध्याय के सम्बन्ध में सूचन आदि अनेक विवरण हैं जो श्रमण जीवन के सर्वांगीण अध्ययन एवं अनुशीलन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं ।
जैनागम दिग्दर्शन
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स्थितियां विहार चर्या के सम्भोग - विसम्भोग का
सातवां उद्देदेशक साधुनों और साध्वियों के पारस्परिक व्यवहार की दृष्टि से अध्येतव्य है । वहां उल्लेख है कि, तीन वर्ष के दीक्षा पर्यायवाला अर्थात् जिसे प्रव्रजित हुए केवल तीन वर्ष हुए हैं, वैसा साधु उस साध्वी को, जिसे दीक्षा ग्रहण किये तीस वर्ष हो गये हैं, उपाध्याय के रूप में प्रदेश - उपदेश दे सकता है । इसी प्रकार केवल पांच वर्ष का दीक्षित साधु साठ वर्ष की दीक्षिता साध्वी को प्राचार्यरूप में उपदेश दे सकता है । ये विधान विनयपिटक के उस प्रसंग से तुलनीय हैं, जहां सौ वर्ष की उपसम्पदा प्राप्त भिक्षुणी को भी उसी दिन उपसम्पन्न भिक्षु के प्रति अभिवादन, प्रत्युत्थान, अंजलि प्रति आदि करने का विधान है । साधुओं एवं साध्वियों के आचार-व्यवहार-सम्बन्धी तारतम्य और भेद-रेखा की दृष्टि से ये प्रसंग विशेष रूप से मननीय एवं समीक्षणीय हैं ।
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