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पैतालीस प्रागम
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दश उद्देशक हैं, जो लगभग तीन सौ सूत्रों में विभक्त हैं। कलेवर में यह श्रु त-ग्रन्थ निशीथ से छोटा और वृहत्कल्प से बड़ा है। भिक्षुषों, भिक्षुणियों द्वारा ज्ञात-अज्ञात रूप में प्राचरित दोषों या स्खलनामों की शुद्धि या प्रतिकार के लिए प्रायश्चित्त, आलोचना आदि का यहां बहुत मार्मिक वर्णन है। उदाहरणार्थ, प्रथम उद्देशक में एक प्रसंग है । यदि एक साधु अपने गण से पृथक हो कर एकाकी विहार करने लगे और फिर यदि अपने गण में पुनः समाविष्ट होना चाहे, तो उसके लिए आवश्यक है कि, वह उस गण के प्राचार्य, उपाध्याय आदि के समक्ष अपनी गर्दा, निन्दा, आलोचनापूर्वक प्रायश्चित्त अंगीकार कर प्रात्म-मार्जन करे। यदि प्राचार्य.या उपाध्याय न मिले, तो साम्भोगिक, विद्यागमी साधुओं के समक्ष वैसा करे । यदि वह भी न मिले, तो सत्रकार ने अन्य साम्भोगिक इतर सम्प्रदाय के विद्यागमी साधु के समक्ष वैसा करने का विधान किया है। उसके भी न मिलने पर सूत्रकार ने अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के विकल्प उपस्थित किए हैं, जिनकी साक्षी से आलोचना, निन्दा, गरे द्वारा अन्तः-परिष्कार कर प्रायश्चित्त किया जाये। यदि वैसा कोई भी न मिल पाए, तो सूत्रकार का निर्देश है कि ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेड़, कर्पट, मडम्ब, पट्टण, द्रोणमुख आदि के पूर्व या उत्तर दिशा में स्थित हो, अपने मस्तक पर दोनों हाथों की अंजलि रख कर इस प्रकार कहते हुए आत्मपर्यालोचन करे कि मैंने अपराध किए हैं, साधुत्व में अपराधी दोषी बना हूं। मैं अर्हतों और सिद्धों की साक्षी से आलोचना करता हूं। आत्म-प्रतिक्रान्त होता हूं, प्रात्म-निन्दा तथा गर्दा करता हूं, प्रायश्चित्त स्वीकार करता हूं।
आत्म-परिष्कृति या अन्तःशोधन की यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो श्रामण्य के विशुद्ध-निर्वहन में निःसंदेह उद्बोधक तथा उत्प्रेरक है । व्यवहार-सूत्र में इस प्रकार के अनेक प्रसंग हैं, जिनका श्रमणजीवन एवं श्रमण-संघ के व्यवस्था-क्रम, समीचीनतया संचालन तथा पवित्रता की दृष्टि से बड़ा महत्त्व है।
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