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जैनागम दिग्दर्शन
निन्दा और पालोचना के सन्दर्भ में अठारह पाप-स्थानकों की चर्चा है। द्वितीय अध्ययन में कर्मों के विपाक तथा पाप-कर्मों को पालोचना की विधेयता का वर्णन है। तृतीय और चतुर्थ अध्ययन में कुत्सित शोल या पाचरण वाले साधुनों का संसर्ग न किये जाने के सम्बन्ध में उपदेश है । प्रसंगोपात्त यहां उल्लेख है कि, नवकार मन्त्र का उद्धार किया और इसे मल सूत्र में स्थान दिया ।' नवनोतसार संज्ञक पंचम अध्ययन में गुरु-शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन है। उस प्रसंग में गच्छ का भी वर्णन किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि गच्छाचार नामक प्रकोर्णक की रचना इसी के आधार पर हुई। षष्ठ अध्ययन में पालोचना तथा प्रायश्चित्त के क्रमशः दस और चार भेदों का वर्णन है।
पति की मृत्यु पर स्त्री के सती होने तथा यदि कोई राजा निष्पत्र मर जाए, तो उसकी विधवा कन्या को राज्य-सिंहासनासीन किये जाने का भी यहां उल्लेख है । ऐतिहासिकता
इस सूत्र की भाषा तथा विषय के स्वरूप को देखते हए इसको गणना प्राचीन आगमों में किया जाना समीचोन नहीं लगता। इसमें तन्त्र सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होते हैं। जैन आगमों के अतिरिक्त इतर ग्रन्थों का भी इसमें उल्लेख है । अन्य भी ऐसे अनेक पहलू हैं, जिनसे यह सम्भावना पुष्ट होतो है कि यह सूत्र अर्वाचीन है।
३. ववहार (व्यवहार) : श्रत-वाङमय में व्यवहार-सूत्र का बहुत बड़ा महत्व है। यहां तक कि इसे द्वादशांग का नवनीत कहा गया है। यद्यपि संख्या में छेद-सूत्र छः हैं, पर, वस्तुतः उनमें विषय, सामग्री, रचना आदि सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण तीन ही हैं, जिनमें व्यवहार सूत्र मुख्य हैं । अवशिष्ट दो निशीथ और बृहत्कल्प हैं।
१. यहां यह ज्ञातव्य है कि दिगम्बर-मान्यता में नवकार मन्त्र के विषय में भिन्न मान्यता है। षट्खण्डागम के धवला टीकाकार वीरसेन का अभिमत है कि प्राचार्य पुष्पदन्त नवकार मन्त्र के स्रष्टा हैं ।
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