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________________ जैनागम दिग्दर्शन प्रमाण एवं हेतु तत्त्व से परिचित विद्वानों के लिए उक्त तीनों ही प्रकार के हेतुवाद सहज-गम्य हैं। उदाहरण मात्र के लिए केवल प्रथम चार भेदों को संक्षेप में प्रस्तुत किया जा रहा है, जोकि कथाक्रम के साथ बहुत ही सरस एवं सुगम बन गये हैं । ५८ 1 यापक हेतु - जिस हेतु से वादी काल यापन करता है । विशेषणों व बकोक्तियों से सामान्य बात को भी लम्बा कर ऐसा किया जाता है । वस्तुस्थिति को समझने में तथा उत्तरित करने में प्रतिवादी को भी समय लगता है । इस तरह व्यर्थ का कालयापन करके वादी अपना फलित सिद्ध करता है । इस हेतु पर कथा तक है- किसी कुलटा स्त्री ने अपने भद्र पति से कहा, आज कल ऊंट के 'मींगरणे' बाजार में बहुत मंहगे हो गये हैं। एक-एक मींगणा एक-एक रूप्यक में बिकता है। तुम मींगणे लेकर बाजार जाओ और यथा - भाव बेचकर द्रव्यार्जन करो | पति बाजार गया । मींगणों के भाव पूछता रहा । कुलटा पत्नी ने अपना उतना समय अपने अन्य प्रेमी के साथ बिताया । स्थापक हेतु -जो हेतु अपने साध्य की अविलम्ब स्थापना कर देता है, वह स्थापक हेतु है । जैसे - " वन्हिमान् पर्वतोऽयं धूमत्वात् " यह पर्वत अग्निमान् है; क्योंकि धुंआ दीख रहा है । साध्य की अविलम्ब स्थापना के लिए उदाहरण दिया गया है - कोई धूर्त परिव्राजक प्रत्येक गांव में जाकर कहता है, पृथ्वी के मध्य भाग में दिया गया दान बहुत ही फलवान् होता है । तुम्हारा गांव ही मध्य भाग है । यह तथ्य मैं ही जानता हूं, अन्य कोई नहीं । किसी अन्य भद्र परिव्राजक ने इस माया जाल को तोड़ने के लिए ग्रामवासियों के बीच यह कहना प्रारम्भ किया - परिव्राजक ! पृथ्वी का बीच तो कोई एक ही स्थान हो सकता है । तुम तो सभी गावों में यही कहते आ रहे हो । भद्र परिव्राजक के इतना कहते ही सारा माया जाल टूट गया । पृथ्वी का केन्द्र तो कोई एक ही स्थान हो सकता है, तत्काल यह सब के समझ में आ गया। हेतु साध्य को सिद्धि में सफल हो गया ।। व्यंसक हेतु – प्रतिपक्षी को व्यामुग्ध कर देने वाला हेतु व्यंसक हेतु है । जैसे - " अस्ति जीवः, प्रस्ति घटः" की स्थापना पर कोई कह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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