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पंतालीस आगम
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दे, अस्तित्व धर्म दोनों में समान है; अतः जीव और घट एक ही हो गये अर्थात् जीव भी चेतन, घट भी चेतन । तथारूप व्यामुग्धता व्यंसक हेत है। उदाहरण में बताया गया है-एक गाड़ीवान अरण्य से जा रहा था। मार्ग में उसने एक तित्तिरी पकड़कर गाड़ी में रख ली। किसी नगर में पहुंचा। एक धूर्त ने कहा- शकटतित्तिरी का क्या मोल हैं ? गाड़ीवान् ने समझा, गाड़ी में स्थित तित्तिरी के लिए पूछ रहा है। उसने कहा- इसका मोल तर्पणालोडिका अर्थात् जल मिश्रित सक्तु है । धूर्त शकट-सहित तित्तिरी लेकर चलने लगा। गाडीवान् झगड़ने लगा, तो धूर्त ने कहा- मैंने तो शकट-तित्तिरी अर्थात् शकट सहित तित्तिरी का मोल ही पूछा था। शाकटिक बेचारा व्यामुग्ध रहा । धूर्त शकट और तित्तिरी लेकर चलते बना । यह है, व्यंसक हेतु ।
__ लूषक हेतु-धूर्त द्वारा प्रापादित अनिष्ट का निराकरण करने वाला लूषक हेत है। जैसे-छला गया शाकटिक किसी अन्य धूर्त से वितर्क सीख कर शकट-अपहर्ता के घर जाता है और कहता हैशकट-तित्तिरी का मेरा मोल तर्पण-लोडिका तो दो । धूर्त ने अपनी पत्नी से कहा-सक्तु घोल कर इसे दे दो। पत्नी घोलने बैठी, तो शाकटिक पत्नी को ही बांह पकड़कर ले जाने लगा। धूर्त ने कहायह क्या कर रहे हो ? शाकटिक ने कहा-तर्पणा-लोडिका को ही तो ले जा रहा हूं। यह तो मेरे मोल में आई है; अतः मेरी पत्नी है । सक्त घोलती हुई स्त्री भी तो तर्पणा-लोडिका होती है। बात दोनों ओर से टकरा गई तो धूर्त ने कहा-शाकटिक ! तुम तुम्हारी शकटतित्तिरी ले जाओ। मेरी पत्नी मेरे पास रहने दो। इस प्रकार व्यसक हेतु का निराकरण ही लूषक हेतु माना गया है। व्याख्या-साहित्य
प्राचार्य अभयदेवसूरि (सन् १०६३) ने स्थानांग पर टीका लिखी है। प्राचारांग,सूत्रकृतांग तथा दृष्टिवाद (जो उपलब्ध नहीं हैं) के अतिरिक्त शेष नौ अगों पर उनकी टीकायें हैं । वे नवांगी टीकाकार कहलाते हैं । प्राचार्य अभयदेव ने टीकाकार के उत्तरदायित्व
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