SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६० जैनागम दिग्दर्शन निर्वाह की कठिनाइयों का उसमें जो वर्णन किया है, उससे उस समय की शास्त्रावस्थिति ज्ञात होती है। वे लिखते हैं "शास्त्राध्येत - सम्प्रदायों के नष्ट हो जाने, सद ऊह, सद् विवेक, सद्वितर्कणा के वियोग, सब विषयों के विवेचनपरक शास्त्रों की अस्वायत्तता, स्मरण-शक्ति के अभाव, वाचनाओं के अनेकत्व, पुस्तकों के अशुद्ध पाठ, सूत्रों की अति गम्भीरता तथा कहीं-कहीं मतभेद; आदि कारणों से त्रुटियां रह जाना सम्भावित है। विवेकशील व्यक्तियों ने शास्त्रों का जो अर्थ स्वीकार किया है, वही हमारे लिए ग्राह्य है, दूसरा नहीं। प्राचार्य अभयदेव ने प्रागे उल्लेख किया है कि इन सब कठिनाइयों के होते हुए भी श्री द्रोणाचार्य आदि के सहयोग से उन्होंने इसकी टीका की रचना की है। प्राचार्य नागर्षि द्वारा स्थानांग पर दीपिका की रचना की गयी। ४. समवायांग समवायॐ का अर्थ समूह या समुदाय होता है। इसका वर्णनक्रम स्थानांग जैसा है । स्थानांग में एक से दस तक संख्यायें पहुँचती हैं, जबकि इसमें वे संख्यायें एक से प्रारम्भ होकर काटानुकोटि (कोडाकोडी) तक जाती हैं । समवायांग में बारह अंगों तथा उनके विषयों का उल्लेख है । संख्या क्रमिक वर्णन के अन्तर्गत यथा-प्रसंग १. सम्प्रदायो गुरुक्रमः । २. सत्सम्प्रदायहीनत्वात् सदूहस्य वियोगतः । सर्वस्वपरशास्त्राणामदृष्टेरस्मृतेश्चमे ॥ वाचनानामनेकत्वात् पुस्तकानामशुद्धितः । सूत्राणामतिगाम्भीर्यान्मतभेदाच्च कुत्रचित् ।। ऊरणानि सम्भवन्तीह, केवलं सुविवेकिभिः । सिद्धान्तेऽनुगतो योऽर्थः सोऽस्मद्ग्राह्यो न चेतरः ।।---४६६ पृ० ३. दुवालसंगे गणिपिडिए पन्नत्त । तं जहा-पायारे, सूयगडे, ठाणे, समवाए, विवाहपन्नती, णायाधम्मकहाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसामो, अणुत्तरोववाइयदसामो, पण्हावागरणाई, विवागसुए, दिट्ठिवाए । से किं तं पायारे ? आयारेणं समणाणं निग्गंथाणं माहिज्जइ ॥ -समवायांग सूत्र; द्वादशांगाधिकार, पृ० २३१-३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy