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________________ १३२ जनागम दिग्दर्शन आदि की दृष्टि से उन्हीं की कोटि का है; अतः इसे ही विशेष रूप से इस अभिधा से संशित किया गया है , यह भी एक अनुमान है। उससे अधिक कोई ठोस तथ्य इससे प्रकट नहीं होता। संक्षेप में विशाल जैन तत्त्व-ज्ञान तथा प्राचार-शास्त्र को व्यक्त करने में आगम-वाङमय में इसका असाधारण स्थान है। भगवद्गीता जिस प्रकार समग्र वैदिक धर्म का निष्कर्ष या नवनीत है, जैन धर्म के सन्दर्भ में उत्तराध्ययन की भी वही स्थिति है। काव्यात्मक हृदयस्पर्शी शैलो, ललित एवं पेशल संवाद, साथ ही साथ स्वभावतः सालंकार भाषा प्रभृति इसको अनेक विशेषताएँ है, जिसने समीक्षक तथा अनुसन्धित्सु विद्वानों को बहुत आकृष्ट किया है। डा० विण्टरनित्ज ने इसे श्रमणकाव्य के रूप में निरूपित किया है तथा महाभारत, सुत्तनिपात, धम्मपद आदि के साथ इसकी तुलना की है। उत्तराध्ययन का महत्व केवल इन शताब्दियों में ही नहीं उभरा है, प्रत्युत बहुत पहले से स्वीकार किया जाता रहा है। नियुक्तिकार ने तीन गाथाएँ उल्लिखित करते हुए इसके महत्व का उपपादन किया है: “जो जीव भवसिद्धिक हैं-भव्य हैं, परित्तसंसारी हैं, वे उत्तराध्ययन के छत्तीस अध्ययन पढ़ते हैं। जो जीव अभवसिद्धिक हैं-अभव्य हैं, ग्रन्थिक सत्व हैं-जिनका ग्रन्थि-भेद नहीं हुआ है, जो अनन्त संसारी हैं, संक्लिष्टकर्मा हैं, वे उत्तराध्ययन पढ़ने के अयोग्य हैं। इसलिए (साधक को) जिनप्रज्ञप्त, शब्द और अर्थ के अनन्त पर्यायों से संयुक्त इस सूत्र को यथाविधि (उपधान आदि तप द्वारा) गुरुजनों के अनुग्रह से अध्ययन करना चाहिये।" १. जे किर भवसिद्धिया, परित्तसंसारिमा य भविमा य । ते किर पंढ़ति धीरा, छत्तीसं उत्तरज्झयणे ॥ १ जे हुंति प्रभवसिद्धिया, गंथिमसत्ता प्रणंतसंसारा। ते संकिलिट्ठकम्मा, प्रभविया उत्तरज्झाए ॥२ तम्हा जिणपण्णत्ते, प्रपंतगमपज्जवेहि संजुत्ते। प्रज्झाए जहाजोगं, गुरुपसाया प्रसिज्झिज्जा ॥ ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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