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________________ ६४ जैनागम दिग्दर्शन विवेचन प्राप्त होता है जो इतिहास को दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें शतक में वर्णित महाशिलाकंटक संग्राम तथा रथमसल संग्राम ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा युद्ध-विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है । अंग, बंग, मगध, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ, कोच्छ, दाढ, लाढ़, वज्जि, मोलि, कासी, कौशल, अबाह, संभुक्तर आदि जनपदों का उल्लेख भारत की तत्कालीन प्रादेशिक स्थिति का सूचन करता है । आजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक, भगवान् महावीर के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मंखलिपुत्र गोशालक के जीवन, कार्य, आदि के संबंध में जितने विस्तार से यहां परिचय प्राप्त होता है,उतना अन्यत्र नहीं होता । स्थान-स्थान पर पापित्यों तथा उनके द्वारा स्वीकृत व पालित चातुर्याम धर्म का उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर के समय में तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के युग से चला आने वाला निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप में विद्यमान था। उसका भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित पंच महाव्रत मूलक धर्म के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध था तथा क्रमशः उसका भगवान् महावीर के आम्नाय में सम्मिलित होना प्रारम्भ हो गया था। - आचार्य अभयदेवसूरि की टीका के अतिरिक्त इस पर अवचूर्णि तथा लघुवृत्ति भी है । लघुवृत्ति के लेखक श्रा दानशेखर हैं। दर्शन-पक्ष भगवती पागम के सहस्रों प्रश्नों में नाना प्रश्न दर्शन-सम्बद्ध हैं । वे जैन दर्शन की मूलभूत धारणाओं को स्पष्ट करते हैं । उदाहरणार्थ प्रथम शतक के षष्ठम उद्देशक में कतिपय जटिल प्रश्नों को एक नन्हें से उदाहरण से ऐसा उत्तरित कर दिया गया है कि उससे आगे कोई प्रश्न नहीं रहता । पहले जीव बना या अजीव, पहले लोक बना या अलोक आदि अनेक प्रश्नों के उत्तर में बताया गया है-पहले मुर्गी बनी या अण्डा, मुर्गी से अण्डा उत्पन्न हुअा या अण्डे से मुर्गी ? जैसे मर्गी और अण्डे में कोई क्रम नहीं बनता, शाश्वत भाव होने के कारण जड़ और चेतन, लोक और अलोक में भी कोई क्रम नहीं बनता। , मुर्गी व अण्डे की पूर्वापरता का उदाहरण पूर्वोक्त क्रमबद्धता के प्रश्नों का निराकरण तो करता ही है, उनसे भी अधिक वह जगत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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