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जैनागम दिग्दर्शन
कर सांधा हुआ' अर्थ' किया गया है। सूत्र - व्याख्याताओं ने इसका अर्थ अन्य सूत्रों अथवा शास्त्रों के मिलते-जुलते या समानार्थक पाठ को चालू या क्रियमाण - उच्चार्यमाण पाठ से मिला देना किया है, जो कोशकारों द्वारा की गयी व्याख्या से मिलता हुआ है । शास्त्र-पाठ या सूत्रोच्चारण में प्राम्र डन, अत्यधिक आम्र ेडन—व्यत्यास्र डन नहीं होना चाहिए ।
१४. प्रतिपूर्ण - शीघ्रता या अतिशीघ्रता से ग्रस्त-व्यस्तता आती है, जिससे उच्चारणीय पाठ का अंश छूट भी सकता है । पाठ का परिपूर्ण रूप से – समग्रतया, उसके बिना किसी अंश को छोड़े उच्चारण किया जाना चाहिए ।
१५. प्रति पूर्णघोष - पाठोच्चारण में जहाँ लय के अनुरूप बोलना आवश्यक है, वहाँ ध्वनि का परिपूर्ण या स्पष्ट उच्चारण भी उतना ही अपेक्षित है । उच्चार्यमाण पाठ का उच्चारण इतने मन्द स्वर से न हो कि उसके सुनाई देने में भी कठिनाई हो । प्रतिपूर्ण घोष समीचोन, संगत, वांछित स्वर से उच्चारण करने का सूचक है । जैसे, मन्द स्वर से उच्चारण करना वर्ज्य है, उसी प्रकार अति तीव्र स्वर से उच्चारण करना भी दूषणीय है ।
१६. कण्ठोष्ठविप्रमुक्त कण्ठ + प्रोष्ठ + विप्र + मुक्त के योग से यह शब्द निष्पन्न हुआ है । मुक्त का अर्थ छूटा हुआ है । जहाँ उच्चारण में कम सावधानी बरती जाती है, वहाँ उच्चार्यमाण वर्ण कुछ कण्ठ में, कुछ होठों में बहुधा अटक जाते हैं । जैसा अपेक्षित हो, वैसा स्पष्ट और सुबोध्य उच्चारण नहीं हो पाता ।
पाठोच्चारण के सम्बन्ध में जो सूचन किया गया है, वह एक
ओर उच्चारण के परिष्कृत रूप और प्रवाह की यथावत्ता बनाये रखने के यत्न का द्योतक है, वहाँ दूसरी ओर उच्चारण, पठन, अभ्यास
१. पाइप्रस महण्णवो ; पृ० ७७६
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