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प्रागम विचार
पूर्वक अधिगत या स्वायत्त किये गये शास्त्रों को यथावत् स्मृति में टिकाये रखने का भी सूचक है। इन सूचनाओं में अनुक्रम, व्यतिक्रम तथा व्युत्क्रम से पाठ करना, पाठ में किसी वर्ण को लुप्त न करना, अधिक या अतिरिक्त अक्षर न जोड़ना, पाठगत अक्षरों को परस्पर न मिलाना या किन्हीं अन्य अक्षरों को पाठ के अक्षरों के साथ न मिलाना आदि के रूप में जो तथ्य उपस्थित किये गये हैं, वे वस्तुतः बहुत महत्वपूर्ण हैं । इसके लिये सम्भवतः यही भावना रही हुई प्रतीत होती है कि श्रमण-परम्परा से उत्तरोत्तर गतिशील द्वादशांगमय मागम-वाङमय का स्रोत कभी परिवर्तित, विचलित तथा विकृत न होने पाये। श्रु त का उद्भव
सर्वज्ञ ज्ञान की प्ररूपणा या अभिव्यंजना क्यों करते हैं, वह आगम रूप में किस प्रकार परिणत होता है, इसका विशेषावश्यक भाष्य में बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है। वहां कहा गया है : "तप, नियम तथा ज्ञान रूपी वृक्ष पर आरूढ अमित-अनन्त ज्ञान-सम्पन्न केवली-ज्ञानी भव्यजनों को उद्बोधित करने के हेतु ज्ञान-पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त ग्रथन करते हैं।''
वृक्ष के दृष्टान्त का विशदीकरण करते हुये भाष्यकार लिखते हैं : "जैसे, विपुल वन-खण्ड के मध्य एक रम्य, उन्नत तथा प्रलम्ब शाखान्वित कल्पवृक्ष है । एक साहसिक व्यक्ति उस पर आरूढ़ हो जाता है। वह वहां अनेक प्रकार के सुरभित पुष्पों को ग्रहण कर लेता है। भूमि पर ऐसे पुरुष हैं, जो पूष्प लेने के इच्छुक हैं और तदर्थ उन्होंने अपने वस्त्र फैला रखे हैं। वह व्यक्ति उन फूलों को फैलाये हुए वस्त्रों पर प्रक्षिप्त कर देता है। वे पुरुष अन्य लोगों पर अनुकम्पा १. तव-नियम-नाणरुक्खं प्रारूढ़ो केवली प्रमियनाणी।
तो मुयइ नाणवुठिं भवियजणविबोहणछाए ॥ तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिहिउ निरवसेसं । तित्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा ।।
-- विशेषावश्यक भाष्य : १०६४-६५
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