________________
१२
जैनागम दिग्दर्शन
करने के निमित्त उन फूलों को गूथते हैं। इसी तरह यह जगत् एक वनखण्ड है। वहां तप, नियम और ज्ञानमय कल्प वृक्ष है। चौतीस अतिशय-युक्त सर्वज्ञ उस पर आरूढ हैं। वे केवली परिपूर्ण ज्ञान-रूपी पुष्पों को छद्मस्थता रूप भूमि पर अवस्थित ज्ञान रूपी पुष्प के अर्थीइच्छुक गणधरों के निर्मल बुद्धिरूपी पट पर प्रक्षिप्त करते हैं।"
भाष्यकार ने स्वयं ही प्रश्न उपस्थित करते हुए इसका और विश्लेषण किया है, जो पठनीय है : "सर्वज्ञ भगवान कृतार्थ हैं। कुछ करना उनके लिए शेष नहीं है। फिर वे धर्म-प्ररूपणा क्यों करते हैं ? सर्वज्ञ सर्व उपाय और विधि-वेत्ता हैं। वे भव्यजनों को उपदेश देने के लिये ही ऐसा करते हैं, अभव्यों को क्यों नहीं उद्बोधित करते ?"
समाधान प्रस्तुत करते हुए भाष्यकार कहते हैं : 'तीर्थंकर एकान्त रूप में कृतार्थ नहीं हैं; क्योंकि उनके जिन नाम-कर्म का उदय है। वह कर्म वन्ध्य या निष्फल नहीं है; अतः उसे क्षीण करने के हेतु यही उपाय है । अथवा कृतार्थ होते हुए भी जैसे सूर्य का स्वभाव प्रकाश करना है, वैसे ही दूसरों से उपकृत न होकर भी परोपकार परायणता
१. रुक्खाइरुवयनिरूवरणत्यमिह दव्वरुक्खदिळंतो।
जह कोइ विउलवणसंडमझयारठ्ठियं रम्मं ॥ तुगं विउलक्खंधं साइसमो कप्परुक्खमारूढो। पज्जत्तगहियबहुविहसुरभिकुसुमोणुकंपाए । कुसुमत्थिभूमिचिट्ठिय पुरिसपसारियपडेसु पक्खिवइ । गंथति ते घेत्त सेसजणाणग्गहठाए । लोगवरणसंडमज्झे त्रोत्तीसाइसयसंपदोवेप्रो । तव-नियम-नाणमइय स कप्परुक्ख समारूढ़ो।। मा होज्ज नाणगहरणम्मि संसपो तेण केवलिग्गहणं । सो वि च उहा तो यं सवण्ण अमियनारिण त्ति ।। पज्जत्तनाणकुसुमो ताई छउमत्थभूमिसंथेसु । नाणकुसुमत्थिगणहरसियबुद्धिपडेसु पक्खिवइ ।
-विशेषावश्यक भाष्य : १०६६-११०१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org