________________
जैनागम दिग्दर्शन
उनके उतने हजार ग्रन्थ थे । प्रत्येकबुद्ध भी उतने ही होते थे । यह कालिक, उत्कालिक श्रुत 'गबाह्य कहा जाता है ।
४०
'ग-प्रविष्ट: श्रंग बाह्य सम्यक्ता
जैन दर्शन का तत्व ज्ञान जहाँ सूक्ष्मता, गम्भीरता, विशदता आदि के लिए प्रसिद्ध है, वहां उदारता के लिए भी उसका विश्ववाङ् मय में अनुपम स्थान है । वहां किसी वस्तु का महत्व केवल उसके नाम पर आधृत नहीं है, वह उसके यथावत् प्रयोग तथा फल पर टिका है। अंग-प्रविष्ट और प्रग- बाहय के सन्दर्भ में जिन शास्त्रों की चर्चा की गयी है, वे जैन परम्परा के मान्य ग्रन्थ हैं । उनके प्रति जैनों का बड़ा प्रादर है । इन ग्रन्थों की प्रादेयता और महनीयता इनको ग्रहण करने वाले व्यक्तित्व पर अवस्थित है । यद्यपि ये शास्त्र अपने स्वरूप की दृष्टि से सम्यक् श्रुत हैं, पर गृहीता की दृष्टि से इन पर इस प्रकार विचार करना होगा - यदि इनका गृहीता सम्यक् दृष्टि सम्पन्न या सम्यक्त्वी है, तो ये शास्त्र उसके लिए सम्यक् श्रुत हैं और यदि इनका गृहीता मिथ्यादृष्टि सम्पृक्त - मिथ्यात्वी है, तो ये मान्य ग्रन्थ भी उसके लिए मिथ्या श्रुत की कोटि में चले जाते हैं । इतना ही नहीं, जो जैन शास्त्र, जिन्हें सामान्यतः असम्यक् ( मिथ्या ) श्रत कहा जाता है, यदि सम्यक्त्वी द्वारा परिगृहीत होते हैं, तो वे उसके लिए सम्यक् श्रुत की कोटि में प्रा जाते हैं । इस तथ्य का विशेषावश्यक भाष्यकार ने तथा आवश्यक नियुक्ति के विवरणकार प्राचार्य मलयगिरि ने बड़े स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया है । "
१. ( क ) भगाणगं पविट्ठ सम्मसुयं लोइयं तु मिच्छ्रयं । प्रासज्ज उ सामित्तं लोइय लोउत्तरे भयणा || - विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५३७( ख ) – सम्यक् श्रुतम् - - पुराण रामायण भारतादि, सर्वमेव वा दर्शनपरिग्रहविशेषात् सम्यक् श्रुतमितरद् वा, तथाहि-- सम्यग्दृष्टी सर्वमपि श्रुतं सम्यक् तम हेयोपादेयशास्त्राणां हेयोपादेयतया परिज्ञानात्, मिथ्यादृष्टो सवं मिध्याश्रुतम् विपर्ययात् ।
-- प्रावश्यक नियुक्तिः पृ० ४७, प्रका० प्रागमोदय समिति बम्बई
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org