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पागम विचार
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जाता है, वह उत्कालिक श्रु त है। वह दशवैकालिक आदि अनेक प्रकार का है। उनमें से कतिपय ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं :
१. कल्प-श्रु त, जो स्थविरादि कल्प का प्रतिपादन करता है। वह दो प्रकार का है-एक चुल्लकल्प श्रु त है,जो अल्प ग्रन्थ तथा अल्प अर्थ वाला है। दूसरा महाकल्प श्रु त है, जो महाग्रन्थ और महा अर्थ वाला है। २. प्रज्ञापना, जो जीव आदि पदार्थों की प्ररूपणा करता है। ३. प्रमादाप्रमाद अध्ययन, जो प्रमाद-अप्रमाद के स्वरूप का भेद तथा विपाक का ज्ञापन करता है। ४. नन्दी, ५. अनुयोगद्वार, ६. देवेन्द्रस्तव, ७. तन्दुलवैचारिक, ८. चन्द्रावेध्यक, ६. सूर्यप्रज्ञप्ति, १०. पोरिषीमण्डल, ११. मण्डल - प्रवेश, १२. विद्याचारण, १३. गणिविद्या, १४. ध्यानविभक्ति, १५. मरण-विभक्ति, १६. प्रात्मविशुद्धि, १७. वीतराग-श्रु त, १८. संलेखना श्रु त, १६. विहारकल्प, २०. चरणविधि, २१. अातुर प्रत्याख्यान, २२. महाप्रत्याख्यान आदि । ये उत्कालिक श्रु त के अन्तर्गत हैं।
कालिक श्रु त अनेक प्रकार का है : १. उत्तराध्ययन, २. दशाकल्प, ३. व्यवहार, ४. वृहत्कल्प. ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. ऋषिभाषित ग्रन्थ, ८. जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, ६. द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति, १०. चन्द्र-प्रज्ञप्ति, ११. क्षुल्लकविमान-प्रविभक्ति, १२. महाविमान प्रविभक्ति, १३. अगचूलिका, १४. वर्गचूलिका, १५. विवाह-चूलिका, १६. अरुणोपपात, १७. वरुणोपपात, १८. गरुडोपपात, १६. धरणोपपात, २०. वैश्रमणोपपात, २१. वैलंधरोपपात, २२ देवेन्द्रोपपात, २३. उत्थान-श्रु त, २४. समुत्थान-श्रु त, २५. नाग-परिज्ञा, २६. निरयावलिया, २७. कल्पिका, २८ कल्पावतंसिका, २६. पुष्पिका, २० पुष्पचूला, ३१. वृष्णिदशा; इत्यादि चौरासी हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभ के समय में थे। संख्यात हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ बीच के बाईस तीर्थ करों के समय तथा चौदह हजार प्रकीर्णक ग्रन्थ भगवान् महावीर के समय में थे। जिस तीर्थ कर के औत्पातिकी प्रादि चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने शिष्य थे,
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