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जैनागम दिग्दर्शन
विशेषण अंग प्रविष्ट से सम्बद्ध हैं तथा स्थविरकृत, उन्मुक्त व्याकरण प्रसूत और चल; ये विशेषण अंग बाह्य के लिये हैं । मलधारी हेमचन्द्र द्वारा व्याख्या
प्राचार्य मलधारी हेमचन्द्र ने भाष्य की इस गाथा का विश्लेषण करते हुये लिखा है : गौतम आदि गणधरों द्वारा रचित द्वादशांग रूप श्र त अंगप्रविष्ट श्र त कहा जाता है तथा भद्रबाहु स्वामी आदि स्थविर-वृद्ध प्राचार्यों द्वारा रचित आवश्यक नियुक्ति प्रादि श्रुत अंगबाह्य श्रु त कहा जाता है। गणधर द्वारा तीन बार पूछे जाने पर तीर्थ कर द्वारा उद्गीर्ण उत्पाद, व्यय व ध्रौव्य मूलक त्रिपदी के आधार पर निष्पादित द्वादशांग श्रु त अंगप्रविष्ट श्रु त है तथा अर्थ-विश्लेषण या प्रतिपादन के सन्दर्भ में निष्पन्न आवश्यक आदि श्रु त अंगबाह्य श्रु त कहा जाता है। ध्र व या नियत श्रु त अर्थात् सभी तीर्थ करो के तीर्थ में अवश्य होने वाला द्वादशांग रूप श्रत अंगप्रविष्ट श्रुत है तथा जो सभी तीर्थ करों के तीर्थ में अवश्य हो ही, ऐसा नहीं है, वह तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण रूप श्रु त अंगबाह्य श्रु त है। प्रा० मलयगिरि की व्याख्या
नन्दी सूत्र की टीका में टीकाकार प्राचार्य मलयगिरि ने अंगप्रविष्ट तथा अंगबाह्य श्रत की व्याख्या करते हये लिखा है : "सर्वोत्कृष्ट श्रु तलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र, जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे आचारांगादि अंगप्रविष्ट श्रुत हैं। उनके अतिरिक्त अन्य श्रुत-स्थविरों द्वारा रचित श्रु त अगबाह्य श्रु त है।" अंगबाह्य श्रु त दो प्रकार का है : (१) सामायिक आदि छः प्रकार का आवश्यक तथा (२) तद्व्यतिरिक्त। आवश्यक-व्यतिरिक्त श्रु त दो प्रकार का है : (१).कालिक एवं (२) उत्कालिक । जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम प्रहर तथा अन्तिम प्रहर में ही पढ़ा जाता है, वह कालिक' श्रु त है तथा जो काल वेला को वजित कर सब समय पढ़ा १. जिसके लिये काल-विशेष में पढ़े जाने की नियामकता नहीं है।
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