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________________ मागम विचार विचार किया गया। समागत विद्वानों में जिन-जिन को जैसा पाठ स्मरण था, उससे तुलना की गयी। इस प्रकार बहुलांशतया एक समन्वित पाठ का निर्धारण किया जा सका। प्रयत्न करने पर भी जिन पाठान्तरों का समन्वय नहीं हो सका, उन्हें टीकाओं, चूणियों आदि में संगृहीत किया गया। मूल और टीकाओं में इस ओर संकेत' किया गया है। जो कतिपय प्रकीर्णक केवल एक ही वाचना में प्राप्त थे, उन्हें ज्यों-का-त्यों रख लिया गया और प्रामाणिक स्वीकार कर लिया गया। पूर्वोक्त दोनों वाचनाओं में संकलित वाङ्मय के अतिरिक्त जो प्रकरण-ग्रन्थ विद्यमान थे, उन्हें भी संकलित किया गया। यह सारा वाङमय लिपिबद्ध किया गया। इस वाचना में यद्यपि संकलन, सम्पादन आदि सारा कार्य तुलनात्मक एवं समन्वयात्मक शैली से हुआ, पर, यह सब मुख्य आधार माथुरी वाचना को मान कर किया गया । आज अंगोपांगादि श्रु त-वाङमय जो उपलब्ध है, वह देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में सम्पन्न वाचना का संस्करणरूप है। अंग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य आगम-वाङमय को प्रणयन या प्रणेता की दृष्टि से दो भागों में बांटा जा सकता है : १. अंग-प्रविष्ट तथा २. अंग-बाह्य । आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में अग अर्थात् अंग-प्रविष्ट तथा अनंग अर्थात् अंग-बाह्य का विश्लेषण करते हुए लिखा है : 'गणधरकृत व स्थिविरकृत, आदेशसृष्ट (अर्थात् तीर्थंकर प्ररूपित त्रिपदी-जनित) व उन्मुक्त व्याकरण-प्रसूत (अर्थात् विश्लेषण-प्रतिपादनजनित) ध्र व नियत व चल-अनियत; इन द्विविध विशेषताओं से युक्त वाङमय अंग-प्रविष्ट तथा अंग-बाह्य नाम से अभिहित है।"२ गणधरकृत, आदेशजनित तथा ध्र व; ये १. वाचनान्तरे तु पुन:. नागार्जुनीयास्तु एवं पठन्ति' इत्यादि द्वारा सकेतिक । २. गणहरथेरकयं वा पाएसा मुक्कवागरणो वा। धुवचलविसेसमो वा अंगाणगेसु नाणत्त । -विशेषावश्यक भाष्य, गाथा ५५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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