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जैनागम दिग्दर्शन
वाचना' भी कहा जाता है।
श्रुत-स्रोत की सतत प्रवहणशीलता के अवरुद्ध होने की कुछ स्थितियां पैदा हुई, जिससे जैन संघ चिन्तित हुआ। स्थितियों का स्पष्ट रूप क्या था, कुछ नहीं कहा जा सकता। पर, जो भी हो, इससे यह प्रतीत होता है कि श्रु त के संरक्षण के हेतु जैन संघ विशेष चिन्तित तथा प्रयत्नशील था। पिछली डेढ शताब्दी के अन्तर्गत प्रतिकूल समय तथा परिस्थितियों के कारण श्रु त-वाङमय का बहुत ह्रास हो चुका होगा। अनेक पाठान्तर तथा वाचना-भेद आदि का प्रचलन था ही; अतः श्रु त के पुनः संकलन और सम्पादन की प्रावश्यकता अनुभूत किया जाना स्वाभाविक था। उसी का परिणाम यह वाचना थी। पाठान्तरों, वाचना-भेदों का समन्वय, पाठ की एकरूपता का निर्धारण, अब तक असंकलित सामग्री का संकलन आदि इस वाचना के मुख्य लक्ष्य थे। सूत्र-पाठ के स्थिरीकरण या स्थायित्व के लिए यह सब अपेक्षित था। वस्तुतः यह बहुत महत्वपूर्ण वाचना थी।
भारत के अनेक प्रदेशों से आगमज्ञ, स्मरण-शक्ति के धनी मुनिवृन्द आये। पिछली माथुरी और वालभी वाचना के पाठान्तरों तथा वाचना-भेदों को सामने रखते हुए समन्वयात्मक दृष्टिकोण से
१. पिछली दोनों वाचनामों के साथ जिस प्रकार दभिक्ष की घटना जडी है,
इस वाचना के साथ भी वैसा ही है। समाचारी शतक में इस सम्बन्ध में उल्लेख है कि बारह वर्ष के भयावह दुभिक्ष के कारण बहुत से साधु दिवंगत हो गये। बहुत-सा श्रत विच्छिन्न हो गया, तब भव्य लोगों के उपकार तथा श्रत को अभिव्यक्ति के हेतु श्रीसंघ के अनुरोध से देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने (९८. वीर निर्वाणाब्द) दुष्काल में जो बच सके, उन सब साधुनों को वलभी में बुलाया। विच्छिन्न, अवशिष्ट, न्यून, अधिक, खण्डित, अखण्डित प्रागमालापक उनसे सुन बुद्धिपूर्वक अनुक्रम से उन्हें संकलित कर पुस्तकारूढ़ किया।
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