________________
प्रागम विचार
गृहीता का वैशिष्ट्य
प्रत्येक पदार्थ अस्तित्व-धर्मा है । वह अपने स्वरूप में अधिष्ठित है, अपने स्वरूप का प्रत्यायक है । उसके साथ संयोजित होने वाले अच्छे बुरे विशेषण पर सापेक्ष हैं । अर्थात् दूसरों - अपने भिन्न-भिन्न प्रयोक्ताओं या गृहीताओं की अपेक्षा से उसमें सम्यक् या असम्यक् व्यवहार होता है । प्रयोक्ता या गृहीता द्वारा अपनी आस्था या विश्वास के अनुरूप प्रयोग होता है । यदि प्रयोक्ता का मानस विकृत है, उसकी आस्था विकृत है, विचार दूषित है, तो वह अच्छे से अच्छे कथित प्रसंग का भी जघन्यतम उपयोग कर सकता है; क्योंकि वह उसके यथार्थ स्वरूप का श्रं कन नहीं कर पाता । जिसे बुरा कहा जाता है, उसके गृहीता का विवेक उद्बुद्ध और प्रास्था सत्परायण है, तो उसके द्वारा उसका जो उपयोग होता है, उससे अच्छाइयाँ ही फलित होती हैं, क्योंकि उसकी बुद्धि सद्ग्राहिणी है ।
૪ર
जैन दर्शन का तत्व - चिन्तन इसी आदर्श पर प्रतिष्ठित है । यही कारण है कि प्रविष्ट श्रुत और प्रगबाह्य श्रुत जैसे प्रार्ष वाङ्मयको मिथ्या श्रुत तक कहने में हिचकिचाहट नहीं होती, यदि वे मिथ्यात्वी द्वारा परिगृहीत हैं । वास्तविकता यह है, जिसका दर्शनविश्वास मिथ्यात्व पर टिका है, वह उसी के अनुरूप उसका उपयोग करेगा अर्थात् उसके द्वारा किया गया उपयोग मिथ्यात्व - सम्वलित होगा । उससे जीवन की पवित्रता नहीं सधेगी । मिथ्यात्व - ग्रस्त व्यक्ति के कार्यकलाप श्रात्म-साधक न हो कर अनात्म परक होते हैं । इसलिये सम्यक् श्रुत भी उसके लिये मिथ्या श्रुत है । यही अपेक्षा सम्यष्टि द्वारा गृहीत मिथ्या श्रुत के सम्बन्ध में होती है । सम्यक्त्वी के कार्य-कलाप सम्यक् या श्रात्म-साधक, स्वपरिष्कारक तथा बुद्धिमूलक होते हैं। वह किसी भी शास्त्र का उपयोग अपने हित में कर लेता है । यह ठीक ही है, ऐसे पुरुष के लिये मिथ्या श्रुत भी सम्यक् श्रुत का काम करता है। जैन तत्व- चिन्तन का यह वह वरेण्य पक्ष है, जो प्रत्येक आत्म-साधक के लिए समाधान कारक है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org