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जैनागम दिग्दर्शन
मंगलाचरण किया गया है । उसके पश्चात् चौथी गाथा से उन्नीसवीं गाथा तक एक सुन्दर रूपक द्वारा धर्म-संघ की प्रशस्ति एवं स्तवना की है। बीसवीं और इक्कीसवीं गाथा में प्राद्य तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ से अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर तक; चौवीस तीर्थङ्करों को सामष्टिक रूप में वन्दन किया गया है। बाईसवीं, तेईसवीं और चौवीसवीं गाथा में भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों तथा धर्म-संघ का वर्णन है। पच्चीसवीं गाथा से सैंतालीसवीं गाथा तक आर्य सुधर्मा से लेकर श्री दूष्यगणी तक स्थनिरावली का प्रशस्तिपूर्वक वर्णन है । अड़तालीसवीं से पचासवीं गाथा तक तप, नियम, सत्य, संयम, विनय, आर्जव, क्षांति, मार्दव, शील आदि उत्तमोत्तम गुणों से युक्त, प्रशस्त व्यक्तित्व के धनी युगप्रधान श्रमणों तथा श्रत-वैशिष्ट्य विभूषित श्रमणों की स्तवना की है। इससे प्रकट है कि यह स्थविरावली युगप्रधान परिपाटी पर आधृत है। तदनन्तर सूत्रात्मक वर्णन प्रारम्भ होता है । स्थान-स्थान पर गाथाओं का प्रयोग भी हुआ है।
___ज्ञान के विश्लेषण के अन्तर्गत मति, श्रुत, अवधि, मनः-पर्यव तथा केवल ज्ञान की व्याख्या की गई है। उनके भेद-प्रभेद, उद्भव, विकास प्रादि का तलस्पर्शी तात्विक विवेचन किया गया है। सम्यक श्रुत के प्रसंग में द्वादशांग या गणि-पिटक के प्राचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग प्रभृति बारह भेद निरूपित किये गये हैं। प्रासंगिक रूप में वहां मिथ्या-श्रु त की भी चर्चा की गई है । गणिक,
आगमिक, अंग-प्रविष्ट, अंग-बाह्य आदि के रूप में श्रु त का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। आगमिक वाङमय के विकास तथा विस्तार के परिशीलन की दृष्टि से नन्दी सूत्र का यह अंश विशेषतः पठनीय है।
दर्शन-पक्ष दर्शन का आधार प्रमाण होता है और प्रमाण का आधार ज्ञान । नन्दी आगम ज्ञान-चर्चा का ही आधार भूत शास्त्र है । जैन ज्ञानवाद पर उसमें सर्वाङ्गीण मीमांसा है। उस ज्ञान मीमांसा की उल्लेखनीय विशेषता यह है कि सामान्यतया सभी जैनेतर दर्शनों में
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