________________
पैतालीस मागम इन्द्रिय-ज्ञान को प्रत्यक्ष ज्ञान की कोटि में लिया है, जबकि जैन दर्शन ने केवल अतीदिन्य ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में लिया है। नन्दीकार ने इन्द्रिय-ज्ञान को भी प्रत्यक्ष ज्ञान के भेदों में ले लिया है। 'आँख देखा भी अप्रत्यक्ष' आदि आरोपों से जैन दर्शन को बचाने की दृष्टि से प्रस्तुत समाधान अपनाया गया है। आगे चल कर तो जैन दर्शन प्रत्यक्ष के दो भेदों में सर्वमान्य हो ही गया-इन्द्रिय ज्ञान सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष और अवधि आदि अतीन्द्रिय ज्ञान पारमार्थिक प्रत्यक्ष ।
नन्दी सूत्र की समग्न ज्ञान-चर्चा को "जैन साहित्य का वृहद् इतिहास १" में निम्नोक्त प्रकार से समाहित एवं रूपान्तरित किया गया हैज्ञानवाद
ज्ञान पाँच प्रकार है : १. प्राभिनिबोधिक ज्ञान, २. श्रु त ज्ञान, ३. अवधि ज्ञान, ४. मनः पर्याय ज्ञान और ५. केवल ज्ञान । संक्षेप में यह ज्ञान दो प्रकार का है : प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष के दो भेद हैं : इन्द्रिय प्रत्यक्ष और नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष । इन्द्रिय प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का है : १. श्रोत्रेन्द्रिय प्रत्यक्ष, २. चक्षुरिन्द्रिय प्रत्यक्ष, ३. घ्राणेन्द्रिय प्रत्यक्ष, ४. जिह्वन्द्रिय प्रत्यक्ष ५. स्पर्शेन्द्रिय प्रत्यक्ष। नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष तीन प्रकार का है : १. अवधि ज्ञान प्रत्यक्ष, २. मनः पर्यय ज्ञान प्रत्यक्ष, ३. केवल ज्ञान प्रत्यक्ष । प्रवधि-ज्ञान
अवधिज्ञान प्रत्यक्ष भव-प्रत्ययिक और क्षायोपशमिक होता है। भव-प्रत्ययिक अवधिज्ञान अर्थात् जन्म से प्राप्त होने वाला ज्ञान । यह देवों तथा नारकों के होता है । क्षायोपशमिक अवधिज्ञान मनुष्यों तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के होता है । अवधिज्ञान के प्रावरक कर्मों में से उदीर्ण के क्षय तथा अनुदीर्ण के उपशमन होने पर उत्पन्न होने से यह क्षायोपशमिक अवधिज्ञान कहलाता है । गुण-प्रतिपन्न अनगार
१. भाग० २. पृ० २. खामोवसमियं तयावरणिज्जारणं कम्मारणं उदिपारणं खएर अणुदिण्णायं उवसमेणं प्रोहिनाणं समुप्पज्जई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org