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मूल--सूत्र
उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, प्रावश्यक, पिण्ड - नियुक्ति तथा - नियुक्ति को सामान्यतः मूल सूत्रों के नाम से अभिहित किया जाता है । यह सर्वसम्मत तथ्य नहीं है । कुछ विद्वान् उत्तराध्ययन, दशवैकालिक तथा आवश्यक; इन तीन को ही मूल सूत्रों में गिनते हैं । वे पिण्ड - नियुक्ति तथा प्रोघ-निर्युक्ति को मूल सूत्रों में समाविष्ट नहीं करते । जैसा कि पहले इंगित किया गया है, पिण्डनियुक्ति दशर्वकालिक नियुक्ति का तथा प्रोघ नियुक्ति आवश्यकनियुक्ति का अंश है । कतिपय विद्वान् उक्त तीन मूल सूत्रों में पिण्डनियुक्ति को सम्मिलित कर उनकी संख्या चार मानते हैं । कुछ के अनुसार, जैसा कि प्रारम्भ में सूचित किया गया है, प्रोघ-निर्युक्ति सहित वे पांच हैं । कतिपय विद्वान् उपर्युक्त तीन में से आवश्यक को हटा कर तथा अनुयोगद्वार व नन्दी को उनमें सम्मिलित कर; चार की संख्या पूरी करते हैं । कुछ विद्वान् पक्खिय सुत्त (पाक्षिक सूत्र ) का भी इनके साथ नाम संयोजित करते हैं ।
जैनगाम दिग्दर्शन
मूल सूत्रों में वस्तुतः उत्तराध्ययन और दशवैकालिक का जैन वाङ्मय में बहुत बड़ा महत्व है । विद्वान् इन्हे जैन ग्रागम वाङ् मय के प्राचीनतम सूत्रों में गिनते हैं । भाषा की दृष्टि से भी इनकी प्राचीनता अक्षुण्ण है । विषय-विवेचन की अपेक्षा से ये बहुत समृद्ध हैं । सुत्तनिपात व धम्मपद जैसे सुप्रसिद्ध बौद्ध-ग्रन्थों से ये तुलनीय है । जैन दर्शन, आचार-विज्ञान तथा तत्सम्मत जीवन के विश्लेषण की दृष्टि से अध्येताओं और अन्वेष्टाओं के लिए ये ग्रन्थ विशेष रूप से परिशीलनीय हैं ।
मूल : नांमकररग क्यों ?
'मूल-सूत्र' नाम क्यों और कब प्रचलित हुआ, कुछ कहा नहीं जा सकता । प्राचीन ग्रागम ग्रन्थो में 'मूल' या 'मूल सूत्रों' के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं है । पश्चाद्वर्ती साहित्य में भी सम्भवतः इस नाम का पहला प्रयोग श्री भावदेवसूरि-रचित 'जैनधर्मं वरस्तोत्र' के तीसवें श्लोक की टीका में है। वहां "अथ उत्तराध्ययन-श्रावश्यक - पिण्ड-
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