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पैतालीस प्रागम
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जीयकप्पसुत्त (जीतकल्प सूत्र) जी, जीय या जीत का अर्थ परम्परा से प्रागत प्राचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज आदि है। इस सूत्र में जैन श्रमणों के प्राचार के सम्बन्ध में प्रायश्चित्तों का विधान है। एक सौ तीन गाथाए हैं। इसमें प्रायश्चित्त का महत्त्व, प्रात्म-शुद्धि या अन्तः-परिष्कार में उसकी उपादेयता आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है। प्रायश्चित्त के दश भेदों का वहां विवेचन है: १. पालोचना, २. प्रतिक्रमण, ३. मिश्र-पालोचना-प्रतिक्रमण, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तप, ७. छेद, ८. मूल, ६. अनवस्थाप्य, १०. पारांचिक। ऐसी मान्यता है कि आचार्य भद्रबाहु के अनन्तर अन्तिम दो अनवस्थाप्य और पारांचिक नामक प्रायश्चित्त व्युछिन्न हो गये। रचना : व्याख्या-साहित्य
सुप्रसिद्ध जैन लेखक, विशेषावश्यक-भाष्य जैसे महान् ग्रन्थ के प्रणेता श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण (सप्तम वि. शती) इस सूत्र के रचयिता माने जाते हैं । क्षमाश्रमण इसके भाष्यकार भी कहे जाते हैं, पर, वह भाष्य वस्तुत: कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ न हो कर वृहत्कल्पभाष्य, व्यवहार-भाष्य, पंचकल्प-भाष्य तथा पिण्ड-नियुक्ति प्रभृति ग्रन्थों की विषयानुरूप भिन्न-भिन्न गाथाओं का संकलन मात्र है। प्राचार्य सिद्धसेन ने इस ग्रन्थ पर चर्णी की रचना की। श्रीचन्द्र सरि ने (१२२८ बिक्रमाब्द में) उस (चूणि) पर 'विषम-पद-व्याख्या' नामक टीका की रचना की। श्री तिलकाचार्य प्रणीत वत्ति भी है। यतिजीतकल्प और श्राद्ध-जीतकल्प नामक ग्रन्थ भी जीतकल्प सत्र से ही सम्बद्ध या तद् विषयान्तर्गत माने जाते हैं। यति-जीतकल्प में यतियों या साधुओं के प्राचार का वर्णन है और श्राद्ध-जीतकल्प में श्राद्धश्रमणोपासक या श्रावक के प्राचार का विवेचन है। यति-जीतकल्प की रचना श्री सोमप्रभ सरि ने की। श्री साधुरत्न ने उस पर वृत्ति लिखी। श्राद्ध-जीतकल्प की रचना श्री धर्मघाष द्वारा की गयी। श्री सोमतिलक ने उस पर वृत्ति की रचना की। १. पाइप्रसिद्द महण्णवो; पृ० ३५८ ।
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