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पैतालीस श्रागम
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नियुक्ति-प्रोघ नियुक्ति - दशवेकालिक इति चत्वारि मूलसूत्राणि " इस प्रकार का उल्लेख प्राप्त होता है ।
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा विमर्ष
गहन अध्ययन, तलस्पर्शी अनुसन्धान और गवेषणा की दृष्टि से योरोपीय देशों के कतिपय विद्वानों ने भारतीय वाङ् मय पर जिस रुचि और अपरित्रान्त अध्यवसाय व लगन के साथ जो कार्य किया है, निःसन्देह, वह स्तुत्य है । कार्य किस सीमा तक हो सका, कितना हो सका, उसके निष्कर्ष कितने उपादेय हैं; इत्यादि पहलू तो स्वतन्त्र रूप में चिन्तन और आलोचना के विषय हैं, पर उनका श्रम, उत्साह और सतत प्रयत्नशीलता भारतीय विद्वानों के लिये भी अनुकरणीय है । जैन वाङ् मय तथा प्राकृत भाषा के क्षेत्र में जर्मनी आदि पश्चिमी देशों के विद्वानों ने अधिक कार्य किया है । जैन आगम - साहित्य पर अनुसन्धान-कर्ता विद्वानों के प्रस्तुत विषय पर जो भिन्न-भिन्न विचार हैं, उन्हें यहां प्रस्तुत किया जाता है ।
प्रो० शर्पेण्टियर का मत
जर्मनी के सुप्रसिद्ध प्राच्य- -विद्या-अध्येता प्रो० शर्पेण्टियर (Prof. -Charpentier) ने उत्तराध्ययन सूत्र की प्रस्तावना में इस मूल सूत्र नामकरण के सम्बन्ध में जो लिखा है, उसके अनुसार इनमें भगवान् महावीर के कुछ शब्दों (Mahavira's own words ) का संगृहीत होना है । इसका आशय यह है कि इनमें जो शब्द संकलित हुए हैं, वे स्वयं भगवान् महावीर के मुख से निःसृत हैं ।
डा० वाल्टर शुचिंग का श्रभिमत
जैन वाङ् मय के विख्यात अध्येता जर्मनी के विद्वान् डा०वाल्टर ब्रिंग (Dr. Walter Schubring ) ने Lax Religion Dyaina' नामक ( जर्मन भाषा में लिखित) पुस्तक में इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि मूल सूत्र नाम इसलिए दिया गया प्रतीत होता है कि साधुओं और साध्वियों के साधनामय जीवन के मूल में - प्रारम्भ में उनके उपयोग के लिए इनका सर्जन हुआ ।
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