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पागम विचार आदि की अनुकूलता मिट गयी। श्रामण्य में स्थिर रह पाना अत्यधिक कठिन हो गया। अनेक , श्रमण काल-कवलित हो गये। नन्दी चूणि में इस सम्बन्ध में उल्लेख है-ग्रहण, गुणन, अनुप्रेक्षा आदि के प्रभाव में श्रु त नष्ट हो गया। कुछ का कहना है, श्रु त नष्ट नहीं हुआ, अधिकांश श्रुत-वेत्ता नष्ट हो गये। हार्द लगभग समान ही है। किसी भी प्रकार से हो, श्रुत-शृंखला व्याहत हो गयी।
दुर्भिक्ष का समय बीता। समाज की स्थिति सुधरी। जो श्रमण बच पाये थे, उन्हें चिन्ता हुई कि श्रुत का संरक्षण कैसे किया जाये ? उस समय प्राचार्य स्कन्दिल युग-प्रधान थे। उनका युगप्रधानत्व-काल इतिहास-वेत्ताओं के अनुसार वीर-निर्वाण ८२७-८४० माना गया है। नन्दी स्थविरावली में प्राचार्य स्कन्दिल का उलेल्ख भगवान् महावीर के अनन्तर चौवीसवें स्थान पर है। नन्दीकार ने उनकी प्रशस्ति में कहा है कि “आज जो अनुयोग-शास्त्रीय अर्थपरम्परा भारत में प्रवृत्त है, वह उन्हीं की देन है। वे परम यशस्वी थे। नगर-नगर में उनकी कीति परिव्याप्त थी।"
नन्दी सूत्र देवद्धिगणी क्षमाश्रमण द्वारा विरचित माना जाता है। वे अन्तिम आगम-वाचना (तृतीय वाचना) के अध्यक्ष थे। देवद्धिगणी क्षमाश्रमण ने प्राचार्य स्कन्दिल के अनुयोग के भारत में प्रवृत्त रहने का जो उल्लेख किया है, उसका कारण यह प्रतीत होता है कि उन्होंने अपने नेतृत्व में समायोजित वाचना में यद्यपि पिछली दोनों (माथुरी और वालभी) वाचनाओं को दृष्टिगत रखा था, फिर भी प्राचार्य स्कन्दिल की (माथुरी) वाचना को मुख्य आधार-रूप में स्वीकार किया था; अतः उनके प्रति आदर व्यक्त करने की दृष्टि से उनका यह कथन स्वाभाविक है।
___ मथुरा उस समय उत्तर भारत में जैन धर्म का मुख्य केन्द्र था। वहाँ प्राचार्य स्कन्दिल के नेतृत्व में आगम-वाचना का आयोजन हुआ। आगम-वेत्ता मुनि दूर-दूर से आये । जिन्हें जैसा स्मरण था, सब समन्वित करते हुए कालिक श्रु त संकलित किया गया । उस समय प्राचार्य स्कन्दिल ही एक मात्र अनुयोगधर थे। उन्होंने उपस्थित श्रमणों को अनुयोग की वाचना दी। यह वाचना मथुरा में दी गयी
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