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जैनागम दिग्दर्शन
आचार्य भद्रबाहु ने सब कुछ जान लिया। वे विद्या के द्वारा बाह्य चमत्कार दिखाने के पक्ष में नहीं थे; अतः इस घटना से वे स्थूल भद्र पर बहुत रुष्ट हुये। आगे वाचना देना बन्द कर दिया । स्थूलभद्र ने क्षमा मांगी। बहत अनुनय-विनय किया। तब उन्होंने आगे के चार पूर्वो का ज्ञान केवल सूत्र रूप में दिया, अर्थ नहीं बतलाया । स्थूलभद्र को चतुर्दश पूर्वो का पाठ तो ज्ञात हो गया, पर, वे अर्थ दश ही पूर्वो का जान पाये; अतः उन्हें पाठ की दृष्टि से चतुर्दश पूर्वधर और अर्थ की दृष्टि से दश पूर्वधर कहा जा सकता है। इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से भद्रबाहु के अनन्तर चार पूर्वो का विच्छेद हो गया। प्रथम वाचना के अध्यक्ष एवं निर्देशक
ग्यारह अंगों का संकलन पाटलिपुत्र में सम्पन्न हुआ। इसे प्रथम आगम-वाचना कहा जाता है। इसकी विधिवत् अध्यक्षता या नेतृत्व किसने किया, स्पष्ट ज्ञात नहीं होता । प्राचार्य भद्रबाहु विशिष्ट योग साधना के सन्दर्भ में नेपाल गये हुये थे; अतः उनका नेतृत्व तो सम्भव था ही नहीं। भद्रबाहु के बाद स्थूलभद्र की ही सब दृष्टियों से वरीयता अभिमत है। यह भी हो सकता है, प्राचार्य भद्रबाहु जब नेपाल जाने लगे हों, उन्होंने संघ का अधिनायकत्व स्थूलभद्र को सौंप दिया हो। अधिकतम यही सम्भावना है, प्रथम आगम-वाचना स्थूलभद्र के नेतृत्व में हुई हो। द्वितीय वाचना—माथुरी बाचना
आवश्यक चूणि के अनुसार प्रागमों की प्रथम वाचना वीरनिर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् हुई। उसमें ग्यारह अंग संकलित हए। गरु-शिष्य क्रम से वे शताब्दियों तक चालू रहे, पर, फिर वीरनिर्वाण के लगभग पौने सात शताब्दियों के पश्चात् ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि आगमों के पुनः संकलन का उद्योग करना पड़ा।
कहा जाता है, तब बारह वर्षों का भयानक दुभिक्ष पड़ा। लोक-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। लोगों को खाने के लाले पड़ गये। श्रमणों पर भी उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। खान-पान, रहन-सहन,
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