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-आगम विचार
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जाती है । किन्तु, नीरनिधि से दक्षिणी समुद्र तट ही क्यों लिया जाए ? उससे बंगोपसागर (बंगाल की खाड़ी) भी लिया जा सकता है, जिस के तट पर उड़ीसा की एक लम्बी पट्टी अवस्थित है, जहां जैन धर्म का संचार हो चुका था ।
भद्रबाहु द्वारा पूर्वो की वाचना
प्राचार्य भद्रबाहु के पास श्रीसंघ का प्रदेश पहुँचा। वे महाप्राण ध्यान की साधना में निरत थे । उनके लिए पाटलिपुत्र आ पाना सम्भव नहीं था । उससे उनकी साधना व्याहत होती थी । उन्होंने स्वीकृति दी कि वहां रहते हुए वे समागत अध्ययनार्थियों को पूर्वों को वाचना दे सकेंगे - प्रध्यापन करा सकेंगे। कहा जाता है, तदनुसार श्रीसंघ ने पन्द्रह सौ श्रमणों को नेपाल भेजा । उनमें पांच सौ विद्यार्थी श्रमण थे तथा प्रत्येक अध्ययनार्थी श्रमण के खान-पान आदि आवश्यक कार्यों की व्यवस्था, परिचर्या आदि के हेतु दो-दो श्रमण नियुक्त थे । इस प्रकार कुल एक हजार परिचारक श्रमण थे ।
प्राचार्य भद्रबाहु ने वाचना देना प्रारम्भ किया । उत्तरोत्तर वाचना चलते रहने में कठिनाई सामने आने लगी । दृष्टिवाद पूर्व ज्ञान की अत्यधिक दुरूहता व जटिलता तथा तदनुरूप ( तदपेक्ष) बौद्धिक क्षमता व धारणा-शक्ति की न्यूनताके कारण अध्ययनार्थी श्रमण परिश्रान्त होने लगे । अन्ततः वे घबरा गये । उनका साहस टूट गया । स्थूलभद्र के अतिरिक्त कोई भी श्रमण अध्ययन में नहीं टिक सका । स्थूलभद्र ने अपने अध्ययन का क्रम निरबाध चालू रखा । दश पूर्वो - का सूत्रात्मक तथा अर्थात्मक ज्ञान उन्हें अधिगत हो गया। आगे अध्ययन चल ही रहा था । इस बीच एक घटना घट गयी । उनकी -बहिनें जो साध्वियाँ थी, श्रमण भाई की श्रु ताराधना देखने के लिये आई | स्थूलभद्र इसे पहले ही जान गये । बहिनों को चमत्कार दिखाने के हेतु विद्या-बल से उन्होंने सिंह का रूप बना लिया । बहिनें भय से ठिठक गईं । स्थूलभद्र तत्क्षण असली रूप में आ गये । बहिनें चकित हो गयीं ।
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