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जैनागम दिग्दर्शन
तब भिक्षा कहां से प्राप्त होती ? स्थविरावली में इस सम्बन्ध में उल्लेख है : "वह दष्काल कालरात्रि के समान कराल था। साधुसंघ (भिक्षापूर्वक) जीवन निर्वाह हेतु समुद्रतट पर चला गया। अधीत का गुणन-यावृत्ति न किये जाने के कारण साधुओं का श्रुत विस्मृत हो गया। अभ्यास न करते रहने से मेधावी जनों द्वारा किया गया अध्ययन भी नष्ट हो जाता है । दुष्काल का अन्त हुआ । सारा साधु-संघ पाटलिपुत्र में मिला । जिस-जिस को जो अंग, अध्ययन, उद्देशक आदि स्मरण थे, उन्हें संकलित किया गया। बारहवें अग दृष्टिवाद का संकलन नहीं हो सका। संघ को चिन्ता हुई । आचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर थे। वे नेपाल में साधना कर रहे थे । श्रीसंघ ने उन्हें बुलाने के लिए दो मुनि भेजे।"' प्राचार्य हरिभद्र के प्राकृत उपदेश पद तथा आवश्यक चूर्णि में भी इसी तरह का वर्णन है।
नीरनिधि अथवा समुद्र-तट पर साधुओं के जाने के उल्लेख से श्रमण-संघ के दक्षिणी समुद्र-तट या दक्षिण देश जाने की कल्पना की
.१. इतश्च तस्मिन् दुष्काले, कराले कालरात्रिवत् ।
निर्वाहार्थं साधुसंवस्तीरं नीरनिधेर्ययौ ॥ प्रगुण्यमानं तु तदा, साधूनां विस्मृतं श्रुतम् । अनभ्यसनतो नश्यत्यधीतं धीमतामपि । संघोऽथ पाटलिपुत्रे, दुष्कालान्तेऽखिलोऽमिलत् । यदंगाध्ययनोद्देशाद्यासीद् यस्य तदादिकम् ॥ ततश्चैकादशाानि श्रीसंघोऽमेलयत्तदा । दृष्टिवादनिमित्त च, तस्थौ किंचिद् विचिन्तयन् ॥ नेपालदेशमार्गस्थं, भद्रबाहु च पूर्विणम् । ज्ञात्वा संघः समाह्वातु तत: प्रेषीन्मुनिद्वयम् ॥
-स्थविरावली चरितम् : ९५५-५६ जामो प्रतम्मि समये दुक्कालो दो य दसम वरिसारिण। सव्वो साहुसमूहो गयो तम्रो जलहितीरेसु ॥ तदुवरमे सो पुणरवि पाडलिपुत्ते समागमो विहिया । संघेणं सुयविसया चिंता कि कस्स प्रत्थे ति॥ जं जस्स प्रामि पासे उद्देसज्झयणमाइसंघडिउ । तं सव्वं एक्कारस्स मंगाई तहेव ठवियाई॥
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