________________
६६
जैनागम दिग्दर्शन धर्मकथाओं का जिसमें वर्णन है, वह ज्ञातृ धर्मकथा सूत्र है । परम्परया इसी नाम का अधिक प्रचलन है।
तीसरा रूप जो 'न्यायधर्मकथा' सूचित किया गया है, इसके अनुसार न्याय-ज्ञान अथवा नीति-सम्बन्धी सामान्य नियमों विधानों
और दृष्टान्तों द्वारा बोध कराने वाली धर्मकथायें जिसमें हों, न्याय-धर्मकथा सूत्र है। आगम का स्वरूपः कलेवर
दो श्र त-स्कन्धों में पागम विभक्त है। प्रथम श्रु त स्कन्ध में उन्नीस अध्ययन हैं तथा दूसरे में दश वर्ग। प्रथम श्रुत-स्कन्ध के अध्ययन में राजगृह के राजा श्रेणिक-बिम्बिसार के धारिणी नामक रानी से उत्पन्न राजपुत्र मेघकुमार का वर्णन है। जब वह कुमार अपने वैभव तथा समृद्धि के अनुरूप अनेक विद्याओं तथा कलाप्रों की शिक्षा प्राप्त करते हुए युवा हुआ, उसका अनेक राजकुमारियों से विवाह कर दिया गया। एक बार ऐसा प्रसंग बना, राजकुमार ने भगवान् महावीर का उपदेश-श्रवण किया। उसके मन में वैराग्य हमा। उसने दीक्षा स्वीकार कर ली। श्रमण-धर्म का पालन करते हुए उसके मन में कुछ दुर्बलता आई। वह क्षुब्ध हुअा और अनुभव करने लगा, जैसे उसने राजवैभव छोड़ श्रमण-धर्म स्वीकार कर मानो भूल की हो । किन्तु भगवान् महावीर ने उसे उसके पूर्व-भव का वृत्तान्त सुनाया, तो उसका मन संयम में स्थिर और दढ हो गया। अन्य अध्ययनों में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न कथानक हैं, जिनके द्वारा तप, त्याग व संयम का उदबोध दिया गया है। पाठवें अध्ययन में विदेह-राजकन्या मल्लि तथा सोलहवें अध्ययन में द्रौपदी के पूर्व जन्म की कथा है। ये दोनों कथायें बहुत महत्वपूर्ण हैं ।
द्वितीय श्र त-स्कन्व दश वर्गों में विभक्त है। इन वर्गों में प्रायः स्वर्गों के इन्द्रों की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली स्त्रियों की कथायें हैं।
प्राचार्य अभयदेवसूरि की टीका है। उसे द्रोणाचार्य ने संशोधित किया था । आचार्य अभयदेवसूरि ने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में जो लिखा है, उसके अनुसार तब अनेक वाचनायें प्रचलित थीं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org