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पंतालीस पागम
तो दो समय के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते, यावत् दस समय तक के शब्द-पुद्गल सुनाई नहीं देते । इसी प्रकार संख्येय समय के प्रविष्ट पुद्गलों को भी वह ग्रहण नहीं करता । असंख्येय समय के प्रविष्ट पुदगल ही उसके ग्रहण करने में आते हैं। यही व्यंजनावग्रह है। इसे मल्लक-शराव-सिकोरा के दृष्टान्त से भी स्पष्ट किया गया है। अर्थावग्रह आदि का स्वरूप इस प्रकार है : जैसे कोई पुरुष जागत अवस्था में अव्यक्त शब्द को सुनता है और उसे 'कुछ शब्द है' ऐसा समझ कर ग्रहण करता है, किन्तु यह नहीं जानता कि वह शब्द किसका है ? तदनन्तर वह ईहा में प्रवेश करता है और तब जानता है कि यह शब्द अमुक का होना चाहिए। इसके बाद वह अवाय में प्रवेश करता है और निश्चय करता है कि यह शब्द अमुक का ही है। तदनन्तर वह धारणा में प्रवेश करता है एवं उस शब्द के ज्ञान को संख्येय अथवा असंख्येय काल तक हृदय में धारण किये रहता है। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी समझना चाहिए । नोइन्द्रिय अर्थात् मन से अर्थावग्रह आदि इस प्रकार होते हैं : जैसे कोई पुरुष अव्यक्त स्वप्न देखता है और प्रारम्भ में 'कुछ स्वप्न है' ऐसा समझता है । यह मनोजन्य अर्थावग्रह है। तदनन्तर क्रमशः मनोजन्य ईहा, अवाय और धारणा की उत्पत्ति होती है।
संक्षेप में मतिज्ञान-आभिनिबोधिक-ज्ञान का चार दृष्टियों से विचार हो सकता है : द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । द्रव्य की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सब पदार्थों को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। क्षेत्र की दृष्टि से मतिज्ञानी सामान्य प्रकार से सम्पूर्ण क्षेत्र को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। काल की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया सम्पूर्ण काल को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। भाव की अपेक्षा से मतिज्ञानी सामान्यतया समस्त भावों-पर्यायों को जानता है, किन्तु, देखता नहीं। मतिज्ञान का उपसंहार करते हुए कहा गया है : शब्द स्पृष्ट (छूने पर) ही सुना जाता है, रूप अस्पृष्ट ही देखा जाता है, रस, गन्ध और स्पर्श स्पृष्ट एवं बद्ध (आत्म प्रदेशों से गृहीत होने पर) ही जाना जाता है । ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा ये सब आभिनिबोधक-मतिज्ञान
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