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के पर्याय हैं :
पुट्ठे सुरणेइ सद्द, रूवं पुण पासइ अपुट्ठे तु ।
गंध रसं च फासं, च बद्धपुट्ठं ईहा अपोह वीमंसा, मग्गणा य सन्ना सई मई पन्ना, सव्वं श्रभिणिबोहियं |:
वियागरे ॥ गवेसणा |
जैनागम दिग्दर्शन
श्रत ज्ञान :
श्रुतज्ञान रूप परोक्ष ज्ञान चौदह प्रकार का है :- १. अक्षरश्रुत, २. अनक्षरश्रुत, ३. संज्ञिश्रुत, ४ असंज्ञिश्रुत, ५. सम्यक् त, ६. मिथ्याश्र त ७. सादिश्रुत, अनादिश्रुत, 8, सपर्यवसितश्रुत, १०. पर्यवसितत ११. गमिक त १२. अगमिकश्रत १३. अंगप्रविष्ट, १४ अनंगप्रविष्ट । इनमें से अक्षरश्रत के तीन भेद हैं संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । अक्षर की संस्थानाकृति का नाम संज्ञाक्षर है । अक्षर के व्यंजनाभिलाप को व्यंजनाक्षर कहते हैं । अक्षरलब्धिवाले जीव को लब्ध्यक्षर ( भावश्रुत) उत्पन्न होता है । वह श्रोत्रेन्द्रिय प्रादिभेद से छः प्रकार का है । अनक्षरश्रत अनेक प्रकार का कहा गया है, जैसे ऊर्ध्वं श्वास लेना, नीचा श्वास लेना, थूकना, खांसना, छोंकना, निसंघना, अनुस्वारयुक्त चेष्टा करना आदि :
-गा० ८५, ८७
ऊससियं नीससियं, निच्छूढं खासियं च छोयं च । निस्सिघियमणुसारं प्रणवखरं छेलियाईयं ॥
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-गाο ८८
संज्ञित तीन प्रकार की संज्ञावाला है : - (दीर्घ) कालिकी, हेतुपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिको । जिसमें ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा, चिन्ता, विमर्श आदि शक्तियां विद्यमान हैं, वह कालिकी संज्ञावाला है । जो प्राणी ( वर्तमान की दृष्टि से ) हिताहित का विचार कर किसी क्रिया में प्रवृत्त होता है, वह हेतूपदेशिकी संज्ञा वाला है । सम्यक् श्रुत के कारण हिताहित] का बोध प्राप्त करने वाला सृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वाला है । प्रसंज्ञिश्रुत संज्ञित से विपरोत लक्षणवाला है ।
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