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________________ पैतालीस मागम १६३ सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी अर्हन्त तीर्थङ्कर प्रणीत द्वादशांगी गणिपिटक सम्यकश्रुत है । द्वादशांगी चतुर्दश पूर्वघर के लिए सम्यकश्रु त है, अभिन्नदशपूर्वी अर्थात् सम्पूर्ण दश पूर्वो के ज्ञाता के लिए भी सम्यक श्रत है, किन्तु, दूसरों के लिए विकल्प से सम्यकश्रत अर्थात उनके लिए यह सम्यक्श्रु त भी हो सकता है और मिथ्याश्रु त भी। ___ अज्ञानी मिथ्याष्टियों द्वारा स्वच्छन्द बुद्धि की कल्पना से कल्पित ग्रन्थ मिथ्या श्रु तान्तर्गत हैं। इनमें से कुछ ग्रन्थ इस प्रकार हैं : भारत (महाभारत), रामायण, भीमासूरोक्त, कौटिल्यक, शकटभद्रिका, खोडमुख (घोटकमुख), कार्पासिक, नागसूक्ष्म, कनकसप्तति, वैशेषिक, बुद्धवचन, वैराशिक, कापिलिक, लौकायतिक, षष्टितन्त्र, माठर, पुराण, व्याकरण, भागवत, पातंजलि, पुण्यदैवत, लेख, गणित, शकुनरुत, नाटक अथवा ७२ कलाएँ और सांगोपांग चार वेद । ये सब ग्रन्थ मिथ्यावृष्टि के लिए मिथ्यात्वरूप से परिगृहीत होने के कारण मिथ्याश्रु तरूप है तथा सम्यक् दृष्टि के लिए सम्यकत्वरूप से परिगृहीत होने के कारण सम्यक् श्रुत रूप हैं। अथवा मिथ्याष्टि के लिए भी ये सम्यक् श्रु तरूप हैं, क्योंकि उसके सम्यक्त्व की उत्पत्ति में ये हेतु हैं। द्वादशांगी गणिपिटक व्युच्छित्तिनय अर्थात् पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से सादि और सपर्यवसित-सान्त है तथा अव्युच्छित्तिनय अर्थात् द्रव्याथिकनय की अपेक्षा से अनादि एवं अपर्यवसित-अनन्त है। जिस सूत्र के आदि, मध्य और अन्त में कुछ विशेषता के साथ बार-बार एक ही पाठ का उच्चारण हो, उसे गमिक कहते हैं। दृष्टिवाद गमिकश्रु त है । गमिक से विपरीत कालिकत (आचारांग प्रादि) अगमिक हैं। श्रु तज्ञान व उसके साथ ही प्रस्तुत सूत्र का उपसंहार करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि निम्नोक्त आठ गुणों से युक्त मुनि को ही श्रु तज्ञान का लाभ होता है : १. सुश्रुषा(श्रवणेच्छा), २. प्रतिपृच्छा, ३. श्रवण, ४. ग्रहण, ५. ईहा, ६. अपोह, ७. धारणा ८. आचरण : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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