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नागम दिग्दर्शन
" से बेमि - इमपि जाइधम्मयं, एयंपि जाइधम्मयं । sift बुढिधम्मयं एयंपि बुढिधम्मयं । इमपि चित्तमंतयं, एयंपि चित्तमंतयं । इमपि छिन्नं मिलाति, एयंपि छिन्नं मिलाति । इमपि श्राहारगं, एयंपि श्राहारगं । इमपि णिच्चयं, एयंपि णिच्चयं । इमपि प्रसासयं, एयंपि प्रसासयं । sift चयावचइयं, एयंपि चयावचइयं । इमपि विपरिणामधम्मयं, एयंपि विपरिणामधम्मयं ।"
मैं कहता हूं - मनुष्य भी जन्मता है, वनस्पति भी जन्मती है । मनुष्य भी बढ़ता है, वनस्पति भी बढ़ती है । मनुष्य भी चैतन्ययुक्त है, वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। मनुष्य भी छिन्न होने पर म्लान होता है, वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है । मनुष्य भी प्रहार करता है, वनस्पति भी प्रहार करती है । मनष्य भी अनित्य है, वनस्पति भी अनित्य है । मनुष्य भी प्रशाश्वत है वनस्पति भी अशाश्वत है । मनुष्य भी उपचित और अपचित होता है, वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है । मनुष्य भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है ।
व्याख्या - साहित्य
आचारांग पर प्राचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्युक्ति, श्री जिनदास गणी द्वारा चूर्ण, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस सूरि द्वारा दीपिका की रचना की गयी ।
जैन वाङ् मय के प्रख्यात अध्येता डा० हर्मन जेकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी । प्रो० एफ० मैक्समुलर द्वारा सम्पादित 'Sacred Books of the East' नामक ग्रन्थमाला के अन्तर्गत २२ वें भाग में उसका प्राक्सफोर्ड से प्रकाशन हुआ । आचारांग के प्रथम श्रु-तस्कन्ध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० वाल्टर शूविंग ने सम्पादन किया तथा सन् १६१० में लिप्जग से इसका प्रकाशन किया। आचार्य भद्रबाहुकृत नियुक्ति
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