________________
पैंतालीस प्रागम
इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है- मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है, जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करता है, वह मैं हूं।
"से पायावाई, लोगवाई, कय्मवाई, किरियावाई।" ___ जो अनुसंचरण को जान लेता है, वहो आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है।
भगवान् महावीर का अस्तित्ववाद मनुष्य व अन्य जंगम प्राणियों तक सीमित नहीं था। उसमें स्थावर प्राणियों के अस्तित्व को भी उतनी ही दृढ़ता से स्वीकारा गया है, जितना जंगम प्राणियों के अस्तित्व को। वहां पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीवन की भी मुक्त चर्चा है, जो लगभग जैन दर्शन की अपनी मौलिक मान्यता ही मानी जा सकती है। इसी आचारांग के वनस्पति निरूपण में कहा गया है :
"से बेमि-अप्पेगे अंधमन्मे, अप्पेगे अंधमच्छे।"
वनस्पतिकायिक जीव जन्मना इन्द्रिय-विकल, अंघ,बधिर, मूक, पंगु और अवयव-हीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाला होता है।
शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इन्द्रिय-विकल मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है।
"अप्पेगे पायमन्मे, अप्पेगे पायमच्छे ।"
इन्द्रिय-सम्पन्न मनुष्य के पैर आदि का शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर उसे प्रकट करने में अक्षम कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पति को होती है।
"अप्पेगे संपमारए, अप्पेगे उद्दवए।" . . मनुष्य को मूच्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे जो कष्टानुभूति होती है, वैसे ही वनस्पतिकायिक जीव को होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org