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जैनागम दिग्दर्शन
वृष्णि दशा के समाप्त होने का कथन करने के अनन्तर.अंत में इन शब्दों द्वारा एक और सूचन किया गया है : "निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुअा। उपांग समाप्त हुए । निरयावलिका उपाँग का एक ही श्रुत-स्कन्ध है। उसके पाँच वर्ग हैं। वे पांच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं । पहले से चौथे तक के वर्गों में दश-दश अध्ययन हैं और पांचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ।" इस उल्लेख से बहत स्पष्ट है, वर्तमान में पृथक-पृथक पांच गिने जाने वाले निरयावलिका (कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूला तथा वृष्णिदशा); ये उपांग कभी एक ही ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित थे।
छेव सूत्र बौद्ध वाङमय में विनय-पिटक की जो स्थिति है, जैन वाङमय में छेद-सूत्रों की लगभग उसी प्रकार की स्थिति है । इनमें जैन श्रमणों तथा श्रमणियों के जीवन से सम्बद्ध आचार-विषयक नियमों का विश्लेषण है, जो भगवान महावीर द्वारा निरूपित किये गये थे तथा आगे भी समय-समय पर उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में निर्धारित होते गये थे। नियम-भंग हो जाने पर साधु-साध्वियों द्वारा अनुसरणीय अनेक प्रायश्चित्त-विधियों का इनमें विशेषतः विश्लेषण है।
श्रमण-जीवन की पवित्रता को बनाये रखने की दृष्टि से छेदसूत्रों का विशेष महत्त्व स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि इन्हें उत्तम कहा गया है। भिक्षु-जीवन के सम्यक संचालन के हेतु छेद-सूत्रों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक समझा गया है। प्राचार्य, उपाध्याय जैसे महत्त्वपूर्ण पदों के अधिकारी छेद-सूत्रों के मर्म-वेत्ता हों, ऐसा अपेक्षित माना जाता रहा है। कहा गया है, कोई भी प्राचार्य
१. निरयावलिया सुयकखंघो सम्मत्तो। सम्मत्तारिण य उबंगारिए । निरयावलि उद्गेणं एगो सुयक्खंघो, पंचवग्गा पंचसु दिवसेसु उद्दिसति । तत्थ चउसु दस दस उद्देसगा । पंचमगे बारस उद्दे सगा । निरयावलिया सुयक्खंघो सम्मतो।
-निरयावलिया; (वहिदशा), अन्तिम भाग
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