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________________ १८६ जनागम दिग्दर्शन इनमें भी संक्षिप्त विवेचन-पद्धति को अपनाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियों की रचना में अर्द्ध-मागधी प्राकृत का प्रयोग हुअा है, इनमें भी प्रधानतः वैसा ही है। कहीं-कहीं अर्द्धमागधी के साथ-साथ मागधी और शौरसेनी प्राकृत के भी कुछ रूप दृष्टिगत होते हैं। रचना : रचयिता ___ मुख्यतया जिन सूत्रों पर भाष्यों की रचना हुई, वे इस प्रकार हैं.-१. निशीथ, २. व्यवहार, ३. बृहत्कल्प, ४ पंच कल्प, ५. जीतकल्प, ६. उत्तराध्ययन, ७. आवश्यक, ८. दशवैकालिक, ६. पिण्ड-नियुक्ति तथा १०. अोघ-नियुक्ति । निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प के भाष्य अनेक दृष्टियों से अत्यधिक महत्त्व लिये हए हैं। इनके रचयिता श्री संघदास गणी क्षमाश्रमण माने जाते हैं। कहा जाता है, ये याकिनीमहत्तरा-सूनु प्राचार्य हरिभद्रसूरि के समसामयिक थे। आवश्यक सूत्र पर लघुभाष्य, महाभाष्य तथा विशेषावश्यक भाष्य की रचनाएं की गयीं। अनेक विषयों का विशद समावेश होने के कारण विशेषावश्यक भाष्य का जैन साहित्य में अत्यन्त महत्व है। इसके रचयिता श्री जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण हैं। जीतकल्प तथा उसके स्वोपज्ञ-भाष्य के कर्ता भी श्री जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ही हैं। भाष्य-साहित्य में प्राचीन श्रमण-जीवन और संघ से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त होती हैं। निर्ग्रन्थों के प्राचीन आचार, व्यवहार, विधि-क्रम, रीति-नीति, प्रायश्चित्तपूर्वक शुद्धि; इत्यादि विषयों के समीक्षात्मक अध्ययन एवं अनुसन्धान के गन्दर्भ में निशीथ, व्यवहार और बृहत्कल्प-भाष्य का अध्ययन नितान्त उपयोगी है। इनमें विविध-प्रसंगों पर इस प्रकार के उपयोगी संकेत प्राप्त होते हैं, जिनसे निर्ग्रन्थों की प्राचार-शृखला को जोड़ने वाली अनेक कड़ियां प्रकाश में आती हैं। चुणि (चरिंग) उद्भव : लक्षण आगमों पर नियुक्ति तथा भाष्य के रूप में प्राकृत-गाथाओं में व्याख्यापरक ग्रन्थों की रचना हुई। उनसे आगमों का प्राशय विस्तार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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