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प्रागमों पर व्याख्या-साहित्य
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तथा विशदता के साथ अधिगत किया जा सके, वैसा शक्य नहीं था। क्योंकि दोनों रचनाए पद्यात्मक थीं। वस्तुतः व्याख्या जितनी स्पष्ट, बोधगम्य तथा हृद्य गद्य में हो सकती है, पद्य में वैसी हो सके, यह सम्भव नहीं हो पाता । फिर दोनों (नियुक्ति तथा भाष्य) में संक्षिप्तता का प्राश्रयण था; अतः प्रवचनकार, प्रवक्ता या व्याख्याता के लिए, जैसा कि उल्लेख किया गया है, वह (शैली) लाभकर थी, पर, स्पष्ट और विशद रूप में आगमों का हार्द अधिगत करने के इच्छक अध्येताओं के लिए उनका बहुत अधिक उपयोग नहीं था। अतएव गद्य के रूप में प्रागमों की व्याख्या रचे जाने का एक क्रम पहले से ही रहा है, जो चूणियों के रूप में प्राप्त है।
अभिधान-राजेन्द्रकार ने चूणि का लक्षण एवं विश्लेषण करते हुए लिखा है : "प्रवृत्ति, अप्रवृत्ति तथा विभाषा' के रूप में जो अर्थबहुल हो, हेय-उपादेय अर्थ का प्रतिपादन करने की महत्ता या विशेषता से जो संयुक्त हो, जिसकी रचना हेतु, निपात तथा उपसर्ग के समन्वय से गम्भीरता लिए हुए हो, जो अव्यवच्छिन्न-श्लोकवत् विराम-रहित हो, जो गम-नैगम-नयानुप्राणित हो, उसे चौर्णपद-चूणि कहा जाता
चूरिणयों की भाषा
चूर्णिकार ने भाषा के सम्बन्ध में नया प्रयोग किया है। प्राकृत जैन दृष्टि से आर्ष वाक् है; अतः उसे तो उन्होंने लिया ही है, पर, संस्कृत को भी उन्होंने ग्रहण किया है। दर्शन और तत्वज्ञान आदि गम्भीर एवं सूक्ष्म विषयों को विद्वद्भोग्य तथा ब्युत्पन्न शैली में व्याख्यात करने में संस्कृत की अपनी अप्रतिम विशेषता है। उसका शब्दकोश वैज्ञानिक दृष्टि से विशाल है तथा उसका व्याकरण शब्दों के नव सर्जन की उर्वरता लिये हुए है। उसकी अपनी कुछ विशिष्ट
१. व्याकरण के अनुसार शाब्दिक रचना की स्थितियां । २. पत्थबहलं महत्थं, हे उनिवाप्रोसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं, गमरणयसुद्ध तु चुन्नपयं ।।
-अभिघान-राजेन्द्र; तृतीय भाग, पृ० ११६५
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