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प्राक्कथन यह एक विश्रुत-धारणा है कि जब मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ के मंदिर को तोड़ा, वहां की अगाध संरक्षित सामग्री नष्ट-भ्रष्ट की और अतुल धन राशि लूटकर अपने देश को लौटा उस समय जैन समाज भी चौंका व चिन्तित हुअा। दूरदर्शी प्राचार्यों व समस्त संघ के समक्ष प्रश्न था-आये दिन होने वाले ये हमले जैन संस्कृति व जैन साहित्य पर भी कभी दुदिन ला सकते हैं। इसी सन्दर्भ में जैन संघ का निर्णय रहा, संस्कृति की रक्षा का एकमात्र उपाय यही है कि जैन आगमों का व सम्बन्धित साहित्य का लिपिबद्ध-रूप ऐसे किसी स्थान पर सुरक्षित किया जाये, जहाँ विधर्मी हमलों की कम से कम सम्भावना व शक्यता हो । हम न रहें. हमारी संस्कृति न रहे, हमारी आगम-निधि बची रही तो समग्र जैन संस्कृति बची रह सकेगी, उसका पुनर्जागरण हो सकेगा। परिणामतः 'जैसलमेर का भण्डार' बना, जहां की निर्जल मरुस्थली में हमलावरों का पहँचना सहज शक्य नहीं था। प्रस्तुत घटना-प्रसंग पागमों की उपयोगिता व गरिमा पर पर्याप्त प्रकाश डाल देता है।
आगम ग्रन्थ अध्यात्म व दर्शन से प्राप्लावित तो हैं ही, साथसाथ वे चिरन्तन युगों की सामाजिक, पार्थिक, राजनैतिक वस्तुस्थिति के बोध से भी भरे-परे हैं। गवेषक विद्वानों के लिए उनकी व्यापक एवं निरुपम उपयोगिता है । वे भारतीय इतिहास की अनेक दुर्भर रिक्तताओं को भरने में सक्षम प्रमाणित हुए हैं तथा हो रहे हैं।
दिगम्बर-परम्परा
आगम ज्ञान के विषय में दिगम्बर परम्परा की धारणा बहुत कुछ भिन्न है। दिगम्बर मान्यता के अनुसार प्राचार्य भद्रबाहु चतुर्दश पूर्वधर, क्रमशः विशाख, प्रोष्ठिल आदि 11 प्राचार्य 10 पूर्वधर, नक्षत्र, जयपाल आदि 5 प्राचार्य एकादश अंगवर, सुभद्र, यशोभद्र आदि 4 प्राचार्य प्राचारांगधर हुए। तदनन्तर न तो पूर्व ज्ञान रहा,
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