SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पैतालीस मागम (ट) हाथी का मांस खाकर रहने वाले। (ठ) सदा ऊंचा दण्ड किये रहने वाले । (ड) वल्कल-वस्त्र धारण करने वाले । (ढ) सदा पानी में रहने वाले। (ण) सदा वृक्ष के नीचे रहने वाले । (त) केवल जल पर निर्वाह करने वाले। (थ) जल के ऊपर आने वाली शैवाल खा कर जीवन चलाने वाले। (द) वायु-भक्षण करने वाले। (घ) वृक्ष-मूल का आहार करने वाले। (न) वृक्ष के कन्द का आहार करने वाले। (प) वृक्ष के पत्तों का आहार करने वाले। (फ) वृक्ष की छाल का आहार करने वाले। (ब) पुष्पों का आहार करने वाले । (भ) बीजों का आहार करने वाले । (म) स्वतः टूट कर गिरे हुए पत्रों, पुष्पों, तथा फलों का आहार करने वाले । (य) दूसरे द्वारा फैंके हुए पदार्थों का आहार करने वाले। (र) सूर्य की आतापना लेने वाले। (ल) कष्ट सह कर शरीर को पत्थर जैसा कठोर बनाने वाले। (व) पंचाग्नि तापने वाले। (श) गर्म बर्तन पर शरीर को परितप्त करने वाले। तापसों के वे विभिन्न रूप उस समय की साधना-प्रणालियों की विविधता के द्योतक हैं । साधारणतः इनमें से कुछ का झुकाव हठयोग या काय-वलेश मुलक तप की ओर अधिक प्रतीत होता है। इन साधनाओं का सांगोपांग रूप क्या था, इनका किन दार्शनिक परम्पराओं या धर्म-सम्प्रदायों से सम्बन्ध था, उन दिनों भारत में उस प्रकार के उनसे भिन्न और भी साधना-क्रम थे क्या, उनके पीछे तत्त्व-चिन्तन की क्या पृष्ठभूमि थी, इत्यादि विषयों के अध्ययन की दृष्टि से ये सूचनाएँ उपयोगी हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy