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________________ जैनागम दिग्दर्शन डाला गया है। जिस-जिस प्रकार के भाषा-प्रयोग और व्यवहार-चर्या का उल्लेख किया गया है, वह श्रमण के अनासक्त, निलिप्त, अमूच्छित, जागरूक तथा आत्म-लीन जीवन के विकास से सम्बद्ध है। प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के चतुर्थ अध्ययन का नाम 'भाषाजात' है। उसमें साधु द्वारा प्रयोग करने योग्य, न करने योग्य भाषा का विश्लेषण है । दशवकालिक के उक्त अध्ययन, में किसी अपेक्षा से इसकी अवतारणा हुई हो, ऐसा अनुमेय है। . 'विनय-समाधि' नवम अध्ययन है। इसमें गुरु के प्रति शिष्य का व्यवहार सदा विनय-पूर्ण रहे, इस पर सुन्दर रूप में प्रकाश डाला गया है। विनय-पूर्ण व्यवहार के सुलाभ और अविनय-पूर्ण व्यवहार के दुर्लाभ हृद्य उपमाओं द्वारा वर्णित किये गये हैं । यह अध्ययन उत्तरा-- ध्ययन के प्रथम अध्ययन 'विनय-श्रुत' से विशेष मिलता-जुलता है, जहां गुरु के प्रति शिष्य के विनयाचरण की उपादेयता और अविनयाचरण की वय॑ता का विवेचन है। - दशम अध्ययन का शीर्षक ‘स भिक्षुः' है। अर्थात् इस अध्ययन में भिक्ष के जीवन, उसकी दैनन्दिन चर्या, व्यवहार, संयमानुप्राणित अध्यवसाय, प्रासक्ति-वर्जन, अलोलुपता आदि का सजीव चित्रण है। दूसरे शब्दों में भिक्षु के यथार्थ रूप का एक रेखांकन है, जो साधक के लिये बड़ा उत्प्रेरक है। उत्तराध्ययन का पन्द्रहवां अध्ययन भी इसी प्रकार का है। उसका शीर्षक भी यही है। दोनों का बहुत साम्य है। भाव ही नहीं, शब्द-रचना तथा छन्द-गठन में भी अनेक स्थानों पर एकरूपता है । ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि दशवै-- कालिक का दशवां अध्ययन उत्तराध्ययन का पन्द्रहवें अध्ययन का बहुत कुछ रूपान्तरण है। चूलिकाएँ रति-वाक्या ., दशम अध्ययन की समाप्ति अनन्तर प्रस्तुत सूत्र में दो चूलिकाएँ हैं। पहली चूलिका 'रति-वाक्या' है। अध्यात्म-रस में पगे व्यक्तियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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