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जैनागम दिग्दर्शन
है।" इस व्याख्या का तात्पर्य यह है कि, जिस प्रकार रहस्यमय विद्या मन्त्र, तन्त्र, योग आदि अनधिकारी या अपरिपक्व बुद्धिवाले व्यक्तियों को नहीं बताये जा सकते अर्थात् उनसे उन्हें छिपा कर या गोप्य रखा जाता है, उसी प्रकार निशीथ सूत्र भी गोप्य है, हर किसी के समक्ष उद्घाट्य नहीं है।
निशीथ आचारांग सूत्र के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध से सम्बद्ध माना जाता है । इसे प्राचारांग के द्वितीय श्रुत-स्कन्ध की पंचम चूला के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसे निशीथ-चला-अध्ययन कहा जाता है। निशीथ को आचार-प्रकल्प के नाम से भी अभिहित किया गया है।
निशीथ सूत्र में साधुनों के और साध्वियों के प्राचार से सम्बद्ध उत्सर्ग-विधि तथा अपवाद-विधि का विवेचन है एवं उनमें स्खलना होने पर प्राचरणीय प्रायश्चित्तों का विवेचन है। इस सन्दर्भ में वहाँ बहुत सूक्ष्म विश्लेषण हुआ है, जो अपने संयम-जीवितव्य का सम्यक् निर्वाह करने की भावना वाले प्रत्येक निर्ग्रन्थ तथा निर्ग्रन्थिनी के लिये पठनीय है । ऐसी मान्यता है कि यदि कोई साधु निशीथ सूत्र विस्मृत कर दे, तो वह यावज्जीवन आचार्य-पद का अधिकारी नहीं हो सकता। रचना : रचनाकार
निशीथ सूत्र की रचना कब हुई, किसके द्वारा हुई, यह निविवाद नहीं है । बहुत पहले से इस सम्बन्ध में मत-भेद चले आ रहे हैं । निशीथ भाष्यकार का अभिमत है कि पूर्वधारी श्रमणों द्वारा इसकी रचना की गयी । अर्थात् यह पूर्व-ज्ञान के आधार पर निबद्ध है। इसका और अधिक स्पष्ट रूप इस प्रकार माना जाता है कि नवम प्रत्याख्यान पूर्व के आचार-संज्ञक तृतीय अधिकार के बीसवें प्राभूत के आधार पर यह (निशीथ-सूत्र) रचा गया।
__ चूर्णिकार जिनदास महत्तर का मन्तव्य है कि. विसाहगणि (विशाख गणी) महत्तर ने इसकी रचना की, जिसका उद्देश्य अपने
१. जं होति अप्पगासं, तं तु निसीहं ति लोगसिद्ध।
जं अपगासधम्म अण्णं पि तयं निसीघंति ।।
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