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________________ १६२ जैनागम दिग्दर्शन पाठवीं ई. शती माना जाता है। उन्होंने प्रावश्यक, दशवकालिक, नन्दी, अनुयोग-द्वार तथा प्रज्ञापना पर टीकाओं को रचना की। टोकाओं में उनकी विद्वत्ता तथा गहन अध्ययन का स्पष्ट दर्शन होता है। टीकाओं में कथा-भाग को उन्होंने प्रात में ही यथावत् उपस्थित किया। इस परम्परा का कतिपय उत्तरवर्ती टीकाकारों ने भी अनुसरण किया, जिनमें वादिवेताल आचार्य शान्तिसूरि, प्राचार्य मलयगिरि आदि मुख्य हैं। शोलांकाचार्य श्री शीलांकाचार्य ने द्वादशांग वाङमय के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मागम आचारांग तथा सूत्रकृतांग पर टीकाओं की रचना की। इनमें जैन-तत्व-ज्ञान तथा प्राचार-क्रम से सम्बद्ध अनेक महत्वपूर्ण तथ्य उद्घाटित हुए हैं । श्री शोलांकाचार्य का समय लगभग नवम ईसवी शती माना जाता है। शांत्याचार्य एवं नेमिचन्द्राचार्य __ ईसा की ग्यारहवीं शती में वादिवेताल प्राचार्य शान्तिसूरि तथा प्राचार्य नेमिचन्द्रसूरि प्रमुख टीकाकार हुए। श्री शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययन पर 'पाइय' या 'शिष्यहिता' संज्ञक टोका को रचना की। वह उत्तराध्ययन-बृहद्-वृत्ति के नाम से भी प्रसिद्ध है। श्री नेमिचन्द्रसूरि ने इसी टीका को मुख्य आधार बनाकर एक और टीका की रचना की, जिसे उन्होंने 'सुख-बोधा' संज्ञा दी। प्राचार्य शान्तिसूरि ने जहाँ प्राकृत-कथाओं को उद्ध त किया है, वहां ऐसा वृद्ध-सम्प्रदाय है, इस प्रकार वृद्धवाद है, अन्य इस प्रकार कहते हैं, इत्यादि महत्वपूर्ण सूचनाएं की हैं, जोअनुसन्धित्सुओं के लिए बड़ी उपयोगी हैं । इनसे अनुमेय है कि प्राचीनकाल से इन कथाओं की परम्परा चली आ रही थी। कथा-साहित्य के अनुशीलन की दृष्टि से इन कथाओं का महत्व है। 'पाइय' तथा 'सुख-बोधा' संज्ञक टीकाओं में कुछ कथाए तो इतनी विस्तृत हो गयी हैं कि उनकी पृथक स्वतन्त्र पुस्तक हो सकती है। ब्रह्मदत्त तथा अगडदत्त की कथाए इसी प्रकार की हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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