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________________ भागमों पर व्याख्या-साहित्य १९१ जैन दार्शनिक-काल के पूर्व से ही विद्वान् प्राचार्यों ने आगमों की टीकाओं की भाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार किया। अहंदवाणी की संवाहिका होने के कारण प्राकृत के प्रति जो श्रद्धा थी, उसका इतना प्रभाव तो टीका-साहित्य में अवश्य पाया जाता है कि कहीं-कहीं कथाएं मल प्राकत में ही उद्ध त की गयी हैं। कुछ टीकाएं प्राकृत निबद्ध भी हैं, पर, बहुत कम । टीकाएं : पुरावर्ती परम्परा ___ नियुक्तियां, भाष्य, चूणियां एवं टीकाए” व्याख्या-साहित्य के क्रमिक विकास के रूप में नहीं हैं, बल्कि सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि इनका सर्जन स्वतन्त्र और निरपेक्ष रूप से अपना दृष्टिकोण लिये चलता रहा है। वालभी वाचना के पूर्व टीकाओं के रचे जाने का क्रम चालू था। दशवैकालिक चूर्णि के लेखक स्थविर अगस्त्यसिंह, जिनका समय विक्रम के ततीय शतक के आसपास था, अपनी रचना में कई स्थानों पर प्राचीन टीकात्रों के सम्बन्ध में इगित किया है। हिमवत् थेरावली में उल्लेख हिमवत् थेरावली में किये गये उल्लेख के अनुसार आर्य मधुमित्र के अन्तेवासी तथा तत्त्वार्थ महाभाष्य के रचयिता आर्य गन्धहस्ती ने आर्य स्कन्दिल के अनुरोध पर द्वादशांग पर विवरण लिखा, जो आज अप्राप्य है। मुनि पुण्यविजयजी के अनुसार आचारांग का विवरण सम्भवतः विक्रम के दो शतक बाद लिखा गया। विवरण वस्तुतः संस्कृत-टीका का ही एक रूप है। इस प्रकार टीकाओं की रचना का क्रम एक प्रकार से बहुत पहले ही चालू हो चुका था। प्रमुख टीकाकार प्राचार्य हरिभद्रसूरि जैन जगत् के महान विद्वान्, अध्यात्म योगी आचार्य हरिभद्रसूरि का आगम-टीकाकारों में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनका समय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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