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"पैतालीस प्रागम
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से बोला जाता है । धैवत स्वर दांतों के योग से उच्चरित होता है। निषाद स्वर नेत्र-भृकुटि के आक्षेप से बोला जाता है।
सातों स्वरों के जीव-निःसृत और अजीव-निःसृत भेद-विश्लेषण के अन्तर्गत बताया गया है कि मयूर षड्ज स्वर, कुक्कुट ऋषभ स्वर. हंस गांधार स्वर, गाय-भेड़ आदि पशु मध्यम स्वर, वसन्त ऋतु में कोयल पंचम स्वर, सारस तथा क्रौंच पक्षी धैवत स्वर और हाथी निषाद स्वर में बोलता है। मानव कृत स्वर-प्रयोग के फलाफल पर भी विचार किया गया है । प्रस्तुत प्रसंग में ग्राम, मूर्च्छना आदि का भी उल्लेख है।
आठ विभक्तियों की भी चर्चा है। कहा गया है, निर्देश में प्रथमा, उपदेश में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदाय में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी, आधार में सप्तमी तथा आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति है। प्रकृति, पागम, लोप, समास, तद्धित, धातु आदि अन्य व्याकरण-सम्बन्धी विषयों की भी चर्चा की गई है। प्रसंगतः काव्य के नौ रसों का भी उल्लेख हुआ है। - पल्योपम, सागरोपम आदि के भेद-प्रभेद तथा विस्तार, संख्यात, असंख्यात, अनन्त आदि का विश्लेषण, भेद-प्रकार; आदि का विस्तार से वर्णन है । जैन पारिभाषिक परिमाण-क्रम तथा संख्याक्रम की दृष्टि से इसका वस्तुतः महत्त्व है। महत्वपूर्ण सूचनाएं
___कुप्रावनिक, मिथ्या शास्त्र, पाखण्डी श्रमण, कापालिक, तापस, परिव्राजक, पाण्डुरंग आदि धर्मोपजीवियों, तृण, काष्ठ तथा पत्ते ढोने वालों, वस्त्र, सूत, भाण्ड आदि का विक्रय कर जीविकोपार्जन करने वालों, जुलाहों, बढ़इयों, चितेरों, दांत के कारीगरों, छत्र बनाने वालों आदि का यथाप्रसंग विवेचन हुआ है।
__ प्रमाण-वर्णन के प्रसंग में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा आगम की विशद चर्चा की गयी है। प्रत्यक्ष के दो भेद बतलाये गये हैं. : इन्द्रियप्रत्यक्ष तथा नो - इन्द्रिय-प्रत्यक्ष । इन्द्रिय-प्रत्यक्ष के पांच भेद कहे गये
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