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________________ जैनागम दिग्दर्शन है। उसके केवल एक अध्ययन में गद्य का प्रयोग हुआ है। दूसरे श्रतस्कन्ध में गद्य और पद्य दोनों पाये जाते हैं। इस पागम में गाथा छन्द के अतिरिक्त इन्द्रवज्रा, वैतालिक, अनुष्टुप् आदि अन्य छन्दों का भी प्रयोग हुअा है। विभिन्न वादों का उल्लेख पंचभूतवाद, ब्रह्म कवाद-अद्वैतवाद या एकात्मवाद, देहात्मवाद, अज्ञानवाद, प्रक्रियावाद, नियतिवाद, अकर्तृत्ववाद, सद्वाद्, पंचस्कन्धवाद तथा धातुवाद आदि का प्रथम स्कन्ध में प्ररूपण किया गया है। तत्पक्षस्थापन और निरसन का एक सांकेतिक-सा, अस्पष्ट सा क्रम वहां है। इससे यह बहुत स्पष्ट नहीं होता कि उन दिनों अमुक-अमुक वाद किस प्रकार की दार्शनिक परम्पराएं लिये हुए थे। हो सकता है,इन वादों का तब तक किसी व्यवस्थित तथा परिपूर्ण दर्शन के रूप में विकास न हो पाया हो। इन वादों पर अवस्थित दार्शनिक परम्पराओं (schools of Philosophy) के ये प्रारम्भिक रूप रहे हों। श्रमणों द्वारा भिक्षाचार में सतर्कता, परिषहों के प्रति सहनशीलता, नरकों के कष्ट, साधुनों के लक्षण, ब्राह्मण, श्रमण, भिक्षु तथा निर्ग्रन्थों जैसे शब्दों की व्याख्या, उदाहरणों तथा रूपकों द्वारा अच्छी तरह की गई है । उल्लिखित मतवादों की चर्चा सम्बन्धित व्याख्या-ग्रन्थों में विस्तार से भी मिलती है। द्वितीय श्रुत-स्कन्ध में पर-मतों का खण्डन किया गया है। विशेषतः वहां जीव व शरीर के एकत्व, ईश्वरकर्तृत्व, नियतिवाद आदि की चर्चा है। प्रस्तूत श्रत-स्कन्ध में प्राहार-दोष, भिक्षा-दोष आदि पर विशेष प्रकाश डाला गया है । प्रसंगवश योग, उत्पाद, स्वप्न, स्वर, व्यंजन, स्त्री लक्षण आदि विषयों का भी निरूपण हुआ है। अन्तिम अध्ययन का नाम नालन्दीय है । इसमें नालन्दा में हुये गौतम गणधर और पापित्यिक उदक पेढ़ाल पुत्त का वार्तालाप है । अन्त में उदक पेढ़ाल पुत्त द्वारा चतुर्याम धर्म के स्थान पर पंच महाव्रत स्वीकार करने का वर्णन है। प्राचीन मतों, वादों और दृष्टिकोणों के अध्ययन के लिए तो यह श्रु ताँग महत्वपूर्ण है ही, भाषा की दृष्टि से भी विशेष प्राचीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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