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________________ १६८ जैनागम दिग्दर्शन प्रागम: आगम दो प्रकार के हैं : लौकिक और लोकोत्तरिक । मिथ्यादृष्टियों के बनाये हुए ग्रन्थ लौकिक आगम हैं; जैसे, रामायण, महाभारत आदि । लोकोत्तरिक आगम वे हैं, जिन्हें पूर्ण ज्ञान एवं दर्शन को धारण करने वाले, भूत, भविष्य एवं वर्तमान काल के पदार्थों के ज्ञाता, तीनों लोकों के प्राणियों से पूजित, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अर्हत् प्रभु ने बताया है, जैसे, द्वादशांग गणिपिटक । अथवा आगम तीन प्रकार के हैं : सूत्रागम, अर्थागम और तदुभयागम; अथवा आत्मागम, अनन्तरागम और परम्परागम । तीर्थङ्कर प्ररूपित अर्थ उनके लिए पात्मागम है। गणधर प्रणीत सूत्र गणधर के लिए आत्मागम एवं अर्थ अनन्तरागम है। गणधरों के शिष्यों के लिए सूत्रों को अनन्तरागम एवं अर्थ को परम्परागम कहते हैं । इसके बाद सूत्र और अर्थ दोनों ही परम्परागम हो जाते हैं। प्रमाण की तरह नयवाद की भी विस्तार से चर्चा हुई है। इन वर्णन-क्रमों से इसके अर्वाचीन होने का कथन परिपुष्ट होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ पर श्री जिनदास महत्तर की चूणि है। प्राचार्य हरिभद्र तथा मलधारी हेमचन्द्र द्वारा टीकात्रों की भी रचना की गई। ___ दस पइएणग (दश प्रकीर्णक) प्रकीर्णक का प्राशय इधर-उधर बिखरी हुई, छितरी हुई सामग्री या विविध विषयों के समाकलन अथवा संग्रह से है । जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रन्थों को कहा जाता है, जो तीर्थङ्कों के शिष्य उद्बुद्धचेता श्रमणों द्वारा अध्यात्म-सम्बद्ध विविध विषयों पर रचे जाते रहे हैं। प्रकीर्णकों की परम्परा : नन्दी सूत्र में किये गये उल्लेख के अनुसार प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् ऋषभ के शिष्यों द्वारा चौरासी सहस्र प्रकीर्णकों की रचना की गई। दूसरे से तेईसवें तक के तीर्थङ्करों के शिष्यों द्वारा संख्येय सहस्र प्रकीर्णक रचे गये। चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान् महावीर के शिष्यों द्वारा चौदह सहस्र प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002628
Book TitleJainagama Digdarshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni, Mahendramuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages212
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size8 MB
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